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________________ १५० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार रुदन- क्रन्दन करने लगी । ठोकरें खाते रहना ही अव उसकी नियति रह गयी थी । उसकी सम्पत्ति भी अब उसके इस अभाव की पूर्ति करने में असमर्थ थी । दारुण दुख और छटपटाहट उसके लोभ का ही दुष्परिणाम था । असन्तोष उस लोभ के मूल मे था । हे स्वामी ! आपको विशेष प्रयोजन से ही मैंने यह कथा सुनायी है । आपके मन मे भी अपार वैभव होते हुए भी असन्तोप है, कुछ नवीन को प्राप्त करने का लोभ है । तनिक सोचकर देख लीजिए कि क्या आप सिद्धि जैमी दुरवस्था को प्राप्त करना चाहते है ? मैं समझती हूं कि आपने यह कथा सुनकर अपना विचार बदल ही दिया होगा । जीवन मे जो सुख आपको प्राप्त हुए हैं, उनका उपभोग कीजिए और गृहत्याग के सकल्प को भूल ही जाइए। आपको अभाव क्या है ? वर्तमान स्थिति से सन्तोष करने की ही तो आवश्यकता है। अपने सारे परिवार की प्रसन्नता के लिए और अपने हित के लिए आपको ऐसा ही करना चाहिए । [
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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