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________________ सिद्धि और बुद्धि की कथा | १४७ बडा आश्चर्य होता था कि बुद्धि की दशा कैसे सुधर गयी । उसे इतनी सम्पत्ति कहाँ से मिल गयी ? उसे आश्चर्य के साथ-साथ बुद्धि की इस समृद्धि से ईर्ष्या भी होती थी । कुतूहल के वशीभूत होकर बुद्धि से उसने कई बार भाँति-भाँति से प्रश्न किये, किन्तु बुद्धि ने अपना रहस्य उद्घाटित नही होने दिया । उसने स्वयं पर दृढ नियन्त्रण स्थापित कर रखा था कि इस विषय मे एक शब्द भी उसके मुख से निकलने न पाये । अत. सिद्धि के लिए यह रहस्य, रहस्य ही रहा। अपनी दरिद्रता से मुक्ति पाने की लालसा से फिर भी सिद्धि इस दिशा मे प्रयत्नशील ही रही । इधर बुद्धि भी नारी सुलभ दुर्बलता से ग्रस्त थी । स्त्रियाँ अपने मन की बात को अधिक समय तक मन मे नही रख पाती है । अतः एक दिन उसने सिद्धि के समक्ष सारा वृत्तान्त प्रस्तुत कर ही दिया कि किस प्रकार एक महात्मा ने आशीर्वाद के साथ वह मन्त्र उसे प्रदान किया, जिसके जाप से देव उस पर प्रसन्न हो गये और किस प्रकार के वरदान से अब उसे एक स्वर्ण - मुद्रा प्रतिदिन मिल जाती है । वह मूल मन्त्र तो अब सिद्धि जान ही गयी थी, वह भी धनाढ्य बनना चाहती थी । उसके मन मे बुद्धि की अपेक्षा अधिक धन प्राप्त कर लेने की साध जम गयी थी । अत. अब उसने ^ उस मन्त्र का जाप करना आरम्भ किया । देव सिद्धि पर भी प्रसन्न हुए और दर्शन देकर एक वरदान माँग लेने को कहा । सिद्धि ने देव से दो मुहरे प्रतिदिन प्राप्त करने का वरदान - ले लिया ।" अब तो मिद्धि के भी दुःख के दिन लद गयें । 4
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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