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________________ १३८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूफुमार अधिक अभिवधित था । इन सुविधाओ के परिवेश के कारण वहाँ वन्य पशु-पक्षियो की भी अधिकता थी। प्रात -मायं सारा वन प्रान्तर नाना पक्षियो के कलरव से गूंज उठता था । स्वच्छन्द तितलियो की चचलता और भ्रमरो की गुजार से तो सभी का मन मुग्ध हो जाया करता था। इस वन मे अन्य पशु-पक्षियो के साथ वानरो का एक समूह भी रहता था। सभी वानर यहां प्रसन्न थे, तृप्त थे । अभाव यहाँ किसी प्रकार का था ही नहीं । अत' इन वानरो का जीवन वड़ा । सुखमय था । सभी परस्पर स्नेह से रहते-कलह का कोई कारण न था। घने वृक्षो की शाखाओ मे उछल-कूद करते रहते, मुक्त विचरण करते रहते। वानरो के इम मुख-शान्तिपूर्ण जीवन में एक दिन एक बाधा उपस्थित हो गयी। विशाल डील-डौल का एक शक्तिशाली वानर किसी अन्य वन से आकर यहां बस गया । इसे अपनी शक्ति पर वडा गर्व था और वह अन्य वानरो पर शासन करना चाहता था । अत वह नित्य ही झगडे-बखेडे खडे करने लगा । कभी किसी वानर को तंग करता तो कभी किसी को। सारे वन की शान्ति इस एक नये वानर ने भग कर दी थी। इस वन के वानर भी बड़े दुखी हो गये थे। एक दिन सबने मिलकर उसे छकाने की ठान ली । खूब सघर्ष हुआ । दोनो पक्षो से घातप्रतिघात का क्रम चलता रहा । आगन्तुक वानर यद्यपि शक्तिशाली था, किन्तु अकेला ही तो था और उसके प्रतिपक्षियो की संख्या अत्यधिक थी । अत अन्त मे उसे हारना ही पडा । अन्य वानरो ने उसे खदेडकर वन से बाहर भगा दिया और उसे ऐसा आतकित
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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