SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षेत्रकुटुम्बी किसान की कथा | १२६ आतुरता अनुपयुक्त है। उस प्रयल के लिए उपयुक्त अवसर भी आपके जीवन मे आयेगा, किन्तु उसके पूर्व अभी की स्थिति जो वर्तमान की है, उसका आग्रह तो गृहस्थ के प्रति ही है । आगामी स्थिति के आने पर तदनुकूल आचरण भी अपेक्षित रहेगा, उसके आगे का क्रम भी अबाध रूप से आता रहेगा और यही क्रमिक विकास है, जिसके चरम पर आप धैर्य को साथी बना कर ही पहुंच सकते हैं । यदि उतावली करके आप बिना ही पहली सीढी पर चरण रखे उछल कर मन्तव्य तक पहुँच जाने का लोभ करेगे, तो स्पष्ट है कि आप उस स्थान से भी नीचे लुढक जायेगे, जहाँ अभी आप है। कुछ क्षण मौन रह कर कनकसेना एक बार फिर से कुमार के मुख की ओर ताकने लगी। कुमार गम्भीरता के साथ कनकसेना के कथन की गहराई तक पहुंचने का प्रयत्न कर रहे हैंऐसा भाव उनकी मुखमुद्रा पर झलक रहा था । और अधिक रुचि लेते हुए कनकसेना ने फिर कहना आरम्भ किया कि हे स्वामी । एक बार एक किमान क्षेत्रकुटुम्बी ने भी इसी प्रकार एक ही बार मे अपार ऐश्वर्य का धनी होने का प्रयत्न किया था और परिणामत उसकी अतिशय कारुणिक दशा हो गयी। तव सब कुछ खोकर उसे हीन हो जाना पड़ा और अपने किये पर पछतावा करते रहना ही उसकी नियति रह गयी थी। जम्बूकुमार मौन रहे, किन्तु उनकी मुखमुद्रा मे ऐमा प्रश्न तैर उठा, जिसका आशय यही था कि वे इस पूरे वृत्तान्त को सुनने के अभिलाषी है । कनक सेना ने कथारम्भ करते हुए कहा कि क्षेत्रकुटुम्बी एक साधारण
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy