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________________ मेघमाली और विद्य त्माली की कथा | १२३ दैवयोग से उस समय एक विद्याधर भी विचरण करते-करते उधर आ निकला। आतप-त्रस्त वह विद्याधर भी इसी वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा । ब्राह्मण-बन्धुओ और विद्याधर मे परस्पर परिचय हुआ। इन भाइयो की कष्ट-कथा को सुनकर विद्याधर का हृदय द्रवित हो उठा। सहानुभूति के आवेग ने उसे इनकी सहायता करने को प्रेरित किया। करुणा भरे स्वर मे उसने उनसे पूछा कि बताओ, मै तुम लोगो की क्या सहायता कर सकता हूँ? इन भाइयो के जीवन मे यह प्रथम ही अवसर आया था, जब किसी ने उनकी स्वेच्छा से सहायता करनी चाही थी । वे हर्षित हो उठे, किन्तु तुरन्त यह निश्चय नही कर पाये कि वे क्या मांगे। सोच-विचार के पश्चात् एक भाई बोला कि यह आपकी महती कृपा है कि आप हमारे प्रति सहायता का भाव रखते है । अब हम आप से क्या माँगे ? आपसे यदि हम धन माँगे, तो प्रदत्त धन तो आखिर कभी-न-कभी तो समाप्त हो ही जायगा, और उसके पश्चात् हम पुन अभावो से घिर जायेगे । अत आप तो हमारी कुछ ऐसी सहायता कीजिए जिसका सुखद प्रभाव आजीवन बना रहे । आप से हमारी विनय है कि कोई विद्या हमे प्रदान कर दीजिए, जो हमारी योग्यता को स्थायी रूप से बढा दे और हम आजीविका अजित करने के योग्य हो जायं । फिर तो हमारे जीवन में सुखागम सुनिश्चित हो जायगा। हम निश्चिन्त हो जायेंगे । आपकी यह हम पर महान अनुकम्पा होगी। विद्याधर इन दरिद्र बन्धुओ के इस बुद्धिमानीपूर्ण चुनाव से
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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