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________________ रानी कपिला की कथा | ११७ को अत्यन्त तिरस्कारपूर्वक झिझोड़कर उठाया और उसे बुरा भला कहने लगे । महावत अपनी सफाई देते हुए कहने लगा कि मैं चोर नही हूँ" 'मै चोर नहीं हूँ। मैं तो एक पथिक हूँ और मेरी पत्नी वो"वहाँ बैठी है। उससे पूछ देखिए""! पूर्व इसके कि लोग कपिला से कुछ पूछते वह स्वय ही चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी कि इसे मत छोड़ो, पकड़ लो इसे । अपने आपको बचाने के लिए यह स्वय को मेरा पति कह रहा है। यही चोर है। मेरा पति तो मेरे साथ यह बैठा है । अब भला कौन एक सुन्दर स्त्री पर अविश्वास कर आशकित चोर पर विश्वास करता । निदान गांव वाले महावत को पकड़ ले गये । कपिला का मार्ग अब साफ हो गया, निर्वाध हो गया । नवीन की उपलब्धि से उसका हृदय बड़ा हर्षित था । उसे इस बात की चिन्ता ही क्यो होने लगी कि उसको प्राणो से भी अधिक प्यार करने वाला वह महावत वेचारा फाँसी पर झुला दिया जायगा। उसे तो मतलव था-अपनी कामना-पूर्ति से । प्रात काल होने पर चोर के साथ कपिला अपनी नयी यात्रा पर निकली । वह उसके साथ उसके घर जाना चाहती थी, किन्तु चोर उसे कहाँ ले जाता ? उसका अपना घर था ही नही । फिर भी वह चल पड़ा था और मन-ही-मन इस संकट से मुक्ति का उपाय खोजने लगा था । मार्ग मे एक चौडी नदी आयी । चोर ने कपिला से कहा कि तुम स्वय तो इस नदी को पार कर नही पाओगी। अब तो यही एक उपाय है कि तुम्हे कन्धे पर विठा कर तैरता हुए उस तट पर ले जाऊँ । कुछ क्षण मौन रहकर चोर ने अपनी योजना प्रस्तुत करते हुए कहा कि ऐसा करते है कि पहले तुम
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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