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________________ १०८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार लालसाएँ थी, जिहोंने उसका सर्वनाश ही कर दिया। तनिक विस्तार से इस प्रसग को स्पष्ट करो । पद्मसेना को एक अद्भुत गौरव का अनुभव होने लगा । कुछ पल मौन रहकर उसने अपने आत्मविश्वास को फिर से सवार लिया और सयत स्वर मे कहने लगी हे स्वामी । सुनिये-मैं आपको रानी कपिला का वृत्तान्त सुनाती हूँ। कपिला एक विशाल और वैभवशाली राज्य की रानी थी। वह अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक तो थी, किन्तु रमणी-सुलभ सरलता का उसमे सर्वथा अभाव था। कपिला मे कुटिलता, प्रवचना आदि दुर्गुण ही नही थे, अपितु वह चरित्रहीना भी थी। उसके मन सरोवर मे जो अनेक कुप्रवृत्तियाँ और पाप छिपे पडे थे वे लालसाओ की प्रचण्ड लहरे उठाते रहते थे । उसका पति राजा बेचारा बडा ही सज्जन, बड़ा ही सरल हृदय था। राजा कपिला के सौन्दर्य पर अनुरक्त था । उसका तनमन अपनी प्रियतमा रानी पर सदा न्योछावर रहता था । रानी के इस अपार रूप के पीछे जो कुत्सित कुरूपता छिपी था-राजा को उसका आभास भी नही था। रानी राजा के साथ रहकर अब एक विशेष प्रकार की अतृप्ति का अनुभव करती थी। अपने पति का सग तो विद्यमान था, वर्तमान था और रानी उसमें नीरसता, ऊव और उकताहट महसूस करती थी। नवीन की खोज मे व्यग्र रहने वाला उसका मन किसी अन्य जन पर अनुरक्त हो गया था। छल-छद्म मे निपुण रानी कपिला ने अपने बाह्य आचरण मे इस बात की गन्ध तक नही आने दी। वह राजा के प्रति पूर्ववत् ही स्नेहशीला बनी रही और बेचारा राजा अपनी
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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