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________________ ६८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार भट्टियाँ सुलगने लगी और उस पर चढे विशालकाय कडाहो मे उबलते रस की भाप उठने लगी। बग की नासिका उस मधुर सुवास से सिक्त हो उठी। किन्तु उसका यह सुख-स्वप्न अधिक काल तक सुरक्षित न रह सका । कठोर यथार्थ से टकरा कर उसकी कल्पनाएँ चकनाचूर होने लगी। ईख को आवश्यकता थी सिचाई की, और जल की एक वृंद भी उपलब्ध नही हो पा रही थी। खेत की मेडो पर पडे अधपके बाजरे के पौधो के साथ-साथ बग का हृदय भी मुरझाने लगा। किन्तु वग ने हिम्मत हारना तो मीखा ही नही था । वह बडा परिश्रमी एव अध्यवसायी था। उसने कुआ खोदना आरम्भ किया, किन्तु उसे जल के स्थान पर निराशा ही हाथ लगी। एक-एक करके उसने कई कुए खोदे, किन्तु किसी ने भी जव जल नही दिया तो विवशता के कारण उसके नेत्र सजल हो उठे । खेत मे बोये गये ईख के बीज अकुरित होने के स्थान पर जलाभाव के कारण नष्ट होने लगे । अव बाजरे के सूखे पौधे पवन से खडखड़ा कर मानो वग की जल्दबाजी पर उसकी हंसी उडाने लगे । उसके खेत के समीप होकर जाने वाले अन्य किसान भी बग की मूर्खता पर कुटिल हंसी हँस देते थे। उसके परिवार वाले उससे भला क्या कहते ! उनका मौन ही वग के लिए असहनीय उपालम्भ हो गया था। वह अब पछताने लगा कि ईख की खेती तो नही हो पायी, इसके विपरीत बाजरे की फसल भी खो दी । गुड तो दूर रहा अब तो बाजरे की रूखी रोटी और मोठ की दाल भी अनुपलब्ध हो गयी । सारे परिवार के लिए भूखो मरने की स्थिति-आ गयी। अब तो भूल को सुधारा भी
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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