SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - पंडितं सुखलालजी सालके थे, तब उनकी माताजीका स्वर्गवास हो गया । घरमें विमाताका आगमन हुआ । उनका नाम था जड़ीबाई । वे जितनी सुंदर थीं, अतनी ही प्रसन्नवदना भी थीं। स्नेह और सौजन्य तो उनमें कूट कूटकर भरा हुआ था। वे मानो मातृत्वकी साक्षात् मूर्ति ही थीं। पंडितजीका कहना है कि कई वर्षों वाद उन्हें यह ज्ञात हुआ कि वे उनकी विमाता थीं । इतना उनका मृदु . व्यवहार था ! - पारिवारिक व्यवस्था और बच्चोंकी देखभालका सारा काम मूलजी काका करते थे। वे थे तो घर के नौकर, पर कुटुम्बके एक सदस्य ही वन गये थे। उनमें बड़ी वफ़ादारी और ईमानदारी थी। वालक सुखलालको तो वे अपने वेटेसे भी ज़्यादा चाहते थे। उन्हें पंडितजी आज भी 'पुरुषमाता' के स्नेहभरे नामसे स्मरण करते हैं । वचपनसे ही सुखलालको खेल-कूदका बड़ा शौक था। वे बड़े निर्भीक और साहसी थे। एक बार तैरना सीखनेका जीमें आया तो विना किसीकी मदद मांगे जाकर कुएँ में कूद पड़े और अपने तइँ तैरना सीख लिया । घुड़सवारी भी उन्हें बहुत पसंद थी। सरकसके सवारकी तरह घोड़ेकी पीठ पर खड़े होकर उसे दौड़ाने में उन्हें वड़ा मजा आता था। कई वार वे इसमें मुँहके बल गिरे भी थे। एक बार सुखलाल अपने दो मित्रोंके साथ तालाव पर नहाने चले । बातें करते करते तीनों मित्रोंमें यह होड़ लगी कि उलटे पाँव चलकर कौन सबसे पहले तालाव परं पहुँचता है। वस ! अव क्या था ?, लगे सुखलाल तो उलटे पाँव चलने । थोड़ी ही देरमें वे थूहरके काँटोंमें जा गिरे। सारे शरीरमें बुरी तरह कांटे चुभ गये। वे वहीं बेहोश हो गये। उन्हें घर ले जाया गया । वड़ी मुश्किलसे चार-छ: घंटोंके वाद जब वे होशमें आये, तो क्या देखते हैं कि सारा वदन कांटोंसे विध गया है। तेल लगाया जा रहा है और नाई एक-एक कर कांटे निकाल रहा है। पर उन्होंने इसकी जरा भी परवाह नहीं की। लगे बढ़ चढ़कर अपनी शौर्य-गाथा गाने । ऐसे साहसप्रिय और क्रीडाप्रिय सुखलाल परिश्रमी, आज्ञाकारी तथा स्वावलंबी भी कम नहीं थे। विवेक और व्यवस्था उनके प्रत्येक कार्यमें दीख पड़ती थी। दूसरोंका काम करनेको वे सदा तत्पर रहते थे। पढ़ाईमें वे कभी लापरवाही नहीं करते थे। उनमें आलस्य नामको न था। बुद्धि इतनी तीक्ष्ण थी कि कठिनतम विषय भी उनके लिये सरल-सा था। स्मरणशक्ति इतनी तीव्र थी कि जो भी वे पढ़ते, तुरंत कंठस्थ
SR No.010642
Book TitlePandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandit Sukhlalji Sanman Samiti
PublisherPandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publication Year1957
Total Pages73
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy