SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) सकूँगा, इसका मुझे खेद है; बहिनसे मेरी असमर्थता सूचित कर देना । प्रसंगके प्रति मेरी हार्दिक अनुमोदना है। ____ बहिने सोचती होंगी, निहालभाईने न पत्र दिया है, न आना ही हुआ है, कही सुमार्गसे हटना तो नही हो गया है, कारण अशुभयोगोंमे तो प्रवृत्ति है व शुभसे उदासीनता दिखती है। मेरे प्रति अनुराग है न, अतः आपको कहकर कार्ड डलवाया होगा। विकल्पात्मक वृत्तियोका तो सहज ही अनुमान कर लिया जाता है, परन्तु निर्विकल्पताका माप तो बाह्यसे नही किया जा सकता; यह तो स्वयंके समाधानका विषय है। बहिनोंका व आपका मेरे प्रति वात्सल्यवत् अनुराग है व मेरा भी आप लोगोंके प्रति; 'यह एक मार्ग'मे चलनेवालोंका सहज सम्बन्ध है । एकाकार गोलेमें प्रविष्ट दृष्टि से वृत्तियोमे फेरफार नही किया जा सकता; जड़ पत्रादिककी बात तो दूर । हॉ, इस दृष्टिसे यथार्थ ध्येय व मार्गकी निःशंकता अवश्य है, अनुभवगम्य है । शक्तिकी निरन्तर पकड़ अथवा एकतासे अथवा 'शक्तिमयी ही हूँ' ईस अनुभवसे वृत्तियोके सहज फेरफारका प्रत्यक्ष समाधान होता है; व गुरुदेवकी वाणीका साक्षात् अर्थ समझमें आता है, जिसका फल वृद्धिगत होते हुए सुखकी पूर्णता है। अशुभमें सहज खेद, शुभमे कुछ उत्साह, सहज ही होता है; पर इन दोनोमे अथवा शुद्धतामे भी फेरफार करनेसे कोई प्रयोजन नही; मात्र पिण्ड हूँ', 'वृत्ति नही', गुरुदेवके इन्ही वचनोको हृदयमे उतार लिया है। शेष फिर। धर्मस्नेही निहालचन्द्र [२१] कलकत्ता २९-६-१९५९ आत्मार्थी प्रत्ये निहालचन्द्रका धर्मस्नेह । आपका कार्ड अजमेरसे भिजवाया हुआ मुझे यहाँ मिला । मै करीव १५ दिनसे कलकत्ता ही हूँ । व्यापार सम्बन्धी कार्यसे आया हुआ हूँ।
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy