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________________ १९ आध्यात्मिक पत्र गुरुदेवके चरनोमे रत मुक्तिमण्डलीमे मेरे उत्तरकालके स्थानका निश्चत भान है, पर अरे ! यह तो जड़ पद है, मेरा तो चैतन्य पद है। "निज कल्पनाथी कोटि शास्त्रो, मात्र मननो आमलो, गुरुवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो साभलो ।" अनुभव लेखनीमे व्यक्त नही हो सकता। सबोको धर्मस्नेह । - निहालचन्द्र [१८] कलकत्ता ९-९-१९५५ आत्मार्थी धर्मस्नेह । पत्र एक आज दिन आपने किसीके मार्फत भिजवाया था सो मिला है, पहले भी अजमेरमे मिला था । कई कारणोसे जवाब लिखनेकी वृत्ति रुक गई, व अब भी पत्रादिक लिखनेको मन नही करता है । हमारी तरफ़के आपको विकल्प होते है; परन्तु विकल्पोमे तो जागृति सदा हेय होनी चाहिए, चाहे वह साक्षात तीर्थकरके प्रति ही क्यो न होवे । निजद्रव्यमे अस्तित्वका निरन्तर श्रद्धान व सहज अनुभव रहनसे, सहज ही विकल्प टूटने लग जाते है व सहज निर्विकल्प स्वाद आने लगता है, जिसके आस्वादन किये बाद विकल्पोका रस सहज ही ठण्डा पड़ने लग जाता है। हमारा तो मन निज चैतन्यबिम्बके अलावा अब कही नही जाना चाहता । लौकिक दृष्टिसे हमारा एक-डेढ़ वर्षसे अधिकका समय तीव्र असाताकी दशाओंमे रहा, अतः इस कारणसे भी पत्रादिककी वृत्ति ओछी रही । हमारी तो यह ही इच्छा है कि आपके विकल्प भी और कही इधर-उधर न जाकर अपनी निज चैतन्यप्रतिमाको घड़ने लग जाये, तो वस्तुका आश्रय होते ही अपूर्वता प्रकट होवे व हमारी तरफ़के निरर्थक विकल्पोका अन्त हो जाये । ___ हमारा पत्र आदि न मिले तो कोई ख़याल नही करना चाहिए। हमारी वहाँ आनेकी जिज्ञासा काफ़ी है, अभी योग्यता नही है, आने पर स्पष्ट
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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