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________________ [२७] कड़े बंधनमे जकड़े हुए जीवको छुड़ाने हेतु परम उपकारभूत है। ____ यद्यपि उनकी वाणी अति शांत व मूदु थी फिर भी श्रोताको ऐसा संवेग आ जाता कि मानो तीव्र पुरुषार्थसे अभी छलांग लगाकर आत्मा आत्मामे स्थिर हो जाए ! इसी भॉति उनकी वाणीमे कोई ऐसा अद्भुत ज़ोर था कि जिसके स्पर्श होते ही पात्र जीवका अनादिसे सुषुप्त पड़ा आत्मा एकदमसे खड़ा हो जाए ! श्री सोगानीजीकी अन्य विशेषता यह भी थी कि "ज्ञानभण्डार आत्मामेसे ज्ञान उघड़ता रहता है, शास्त्रसे नहीं" - इस सिद्धांत वाक्यके वाच्यसे, वे स्वानुभूत ज्ञानके प्रकाशमे ही सभी जिज्ञासाओ और प्रश्नोंका समाधान देते थे। इसी कारणसे प्रायः उनके पत्रो या प्रश्नोत्तर-चर्चामे, शास्त्राधारके बजाय स्वानुभूत ज्ञानाधार मुख्यरूपसे प्रतिविवित होता है । और वस्तुस्थिति भी यही है कि आगमादि सभी प्रमाणोमे अनुभवप्रमाणको ही सर्वत्र सर्वोत्कृष्ट मान्य किया गया है। श्री सोगानीजीकी उक्त विशिष्टताका उदाहरण प्रस्तुत है : एकवार श्री सोगानीजीके साथ चल रही तत्त्व-चर्चामे एक मुमुक्षुने यह प्रश्न किया कि 'पर्यायका क्षेत्र भिन्न है या अभिन्न ? इसका उत्तर उन्होने यो दिया कि : 'दृष्टिका विषयभूत पदार्थ, पर्यायसे -क्षेत्रसे भी भिन्न है।' - ऐसे उत्तरमे उपादेयभूत परमपारिणामिकभावकी उपादेयताकी ठोस ध्वनि सनिहित है। वही जब दूसरे मुमुक्षुने प्रश्न किया कि 'अशुद्ध पर्यायका उत्पाद कहॉसे हुआ और वह पर्याय व्यय होकर कहाँ गई ?' इसका उत्तर उन्होने यथार्थ पदार्थ-दर्शनसे परिणमित सम्यग्ज्ञानकी भूमिकामे देखते हुए यो दिया कि : ‘पदार्थकी तीनो कालकी पर्याये पानीकी तरंगवत् अपने आपमेसे उद्भव होती हैं और अपने आपमे विलीन होती है।' * जिनवाणी-प्रेम : श्री सोगानीजी अपने आत्म-अन्वेषणकी अवधिमे बहुधा धर्मग्रन्थोंके
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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