SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) जो सुखरूप है । कृत्रिम उद्यम तो विकल्पवाला खोटा पुरुषार्थ है, दुःखरूप है । ५८२. परिणाम मात्र व्यवहार है । परिणामकी दृष्टिसे दीनता आती है। पर्यायमे रुकनेसे एकान्त दुःख होता है । परिणाम उत्पाद-व्यय स्वरूप है । 'मैं' तो अपरिणामी हूँ, जिसमे उत्पाद-व्यय नही है; निगोदसे लेकर सिद्ध तक वैसा का वैसा ही हूँ । परिणाममे प्रसरनेसे परिणाम जितना हो जाएगा। [ क्षणिकपरिणाम जितना ही अपना जीवन ( अस्तित्व ) ग्रहण करनेसे – ऐसे मिथ्यात्वके फलस्वरूप - निगोदका क्षणिक जीवन प्राप्त होता है। ] ५८३. प्रत्येक परिणाम सत् है; उसमे फेर-फार करनेका विकल्प झूठा है। ध्रुव, सदा ध्रुवरूप ही है - वो उत्पाद-व्ययको क्या करे ? ५८४. 'मै' तो विकल्प मात्रसे और परिणाम मात्रसे रहित हूँ। ५८५. 'मेरा' अस्तित्व परिणाम तथा विकल्पमे नही है । 'मैं' तो वर्तमानमे ही त्रिकाली अपरिणामी हूँ । 'मेरे' मे [ विकल्पके ] कर्तापनेका स्वभाव हो तो मुक्ति कभी नही हो सकती । ५८६. ____ 'मै' नित्य सदृश्य हूँ, जिसमे कुछ करनेका या फेर-फार करनेका नही है । नित्य वस्तुको ध्येय बनानेसे 'मेरे' मे [ सासारिक ] सुख-दुःख नही है; हर्ष-शोक तो पर्यायदृष्टिमे है । ५८७. पर्याय विनश्वर है; इसमे एकत्व करनेसे 'स्वयं' विनश्वर होता है। श्री योगेन्द्रदेव कहते है कि - "उत्पाद-व्यय, बंध-मोक्ष 'पर्याय' मे है, 'मेरे' मे नही ।" [श्रीमद् राजचद्रजीने भी कहा है कि - दिगम्वर
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy