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________________ १७६ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग -३) अपराध नही है जितना कि रागका राग होना । क्योकि रागका राग अनन्तानुबन्धीका कषाय है । ] ५२६. परिणामकी मर्यादा देखते रहनेसे अपरिणामीका ज़ोर छूट जाता है। [ अपरिणामीके जोरमे परिणामका ज्ञान सहज रहता है । ] ५२७. पर्यायमे बैठ करके घुटन करनेसे तो पर्यायमे ठीकपना रहता है, ऐसे कृत्रिम प्रयासका अभिप्राय छोड़ो ! ५२८. असलमे बात इतनी-सी ही है कि 'इधरमे [ अन्तरमे ] जम जाना चाहिए, त्रिकाली अस्तित्वमे प्रसर जाना चाहिए।' [ अस्तित्वमे प्रसर जाना अर्थात् परिणाम अन्तर्मुख-स्वसन्मुख होकर अपने पूरे क्षेत्रमे व्याप्य-व्यापकभावसे स्वयका स्वभावरूप अनुभव करना । ] ५२९ सुनना, पढ़ना, चर्चा करना - यह सभी ऊपर-ऊपरकी बाते है; असलमे तो अन्दरमे जम जाना चाहिए, स्वरूपमे ऊँड़े उतर जाना चाहिए । ५३०. षट् आवश्यक आदि क्या ? - एक ही [ निश्चय ] आवश्यक ह - यह बात 'आत्मधर्म मे पढ़कर ऐसी चोट लगी कि बस ! यही बात ठीक है । ५३१. [ अगत] 'प्रश्न :- शुरुआतवालेको अनुभवका कैसे प्रयत्न करना ? उत्तर :- 'मै परिणाम मात्र नही हूँ,' 'त्रिकाली ध्रुवपनेमे अपनापन स्थापना' - यही एक उपाय है । ५३२. एक ही 'मास्टर की' ( Master key ) है; सब बातोका,
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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