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________________ तत्त्वचर्चा १७३ है...उस [ अनन्त प्रत्यक्ष ] चीज़का पहले अनुमान किया जाता है, फिर [ वेदनसे ] प्रत्यक्ष करना । ५०६. इसकी तो ज़रूरत है न !...उसकी तो ज़रूरत है न ! [-ऐसा भाव अज्ञानीको रहता है । ] अरे भैया ! पहले 'मै अजरूरियातवाला [ निरावलम्बी ] हूँ' - यह तो निर्णय करो । ५०७. [ व्याप्य-व्यापकतारा ] पर्याय तक ही अपना कार्य सीमित है; परपदार्थसे तो कुछ सम्बन्ध है ही नही - ऐसा निश्चय होगया, फिर तो अपनेमे ही शोध चालू होगी । ५०८. महाराजसाहवने दुष्कालमे सुकाल कर दिया है - यह क्या कम महत्त्वकी बात है ? इस कालमे जहाँ ऐसी बात सुननेको नही मिलती, वहाँ [ नत्त्वकी ] मुसलाधार वर्षा कर दी है । ५०९. प्रश्न :- हमे सम्यग्दर्शन हुआ या नही, यह कैसे मालूम होवे ? उत्तर :- यह प्रश्न ही बतलाता है कि तुमे सम्यग्दर्शन नही हुआ तभी ऐसी शंका होती है । अन्य माने तो सम्यग्दर्शन है, ऐसा नही है । ५१०. ___ 'मै कृतकृत्य चैतन्यधाम हूँ, विकारने मुझे छुआ ही नही, मै ध्रुवधाम हूँ' - ऐसा अपना अहम्पना आना चाहिए । ५११. मेरा स्वभाव ज्ञान-दर्शनादिसे लवालब भरा हुआ है, इसमे नया कुछ करना नहीं है, कुछ बढ़ाना भी नही है । ५१२. पूज्य गुरुदेवश्रीने जो उपदेश द्वारा बतलाया सो ही कार्य मैने किया
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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