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________________ १५० * देव आदि तथा स्त्री आदि सभी एक अशुद्धताके ही निमित्त हैं; और शुद्धताका निमित्त तो एक 'आप' ही है । [ सभी प्रकारके पराश्रित परिणामोसे तो अशुद्धताकी ही उत्पत्ति होती है । शुद्धताकी उत्पत्ति तो एक मात्र स्वाश्रित परिणामसे होती है । ] ३८८. ※ जिस भावसे तीर्थकरगोत्र बँधता है, वह भाव भी नपुंसकता है - अपन तो ऐसे लेते है । ३८९. द्रव्यदृष्टि-प्रकाश ( भाग - ३) * अपने यहाॅ तो कच्ची-पक्की भूमिकाकी बात ही नही है । जो भूमिका [ आश्रयस्थान ] प्रथम है, सो ही अंतमे है । अर्थात् अपन तो ऐसी भूमिका लेते है जो सदैव टिकती है, त्रिकाल है । ३९०. * त्रिकाली एकत्व होनेपर राग ऐसा भिन्न दिखता है कि जैसे अन्य चीज़ प्रत्यक्ष भिन्न दिखाई देती है राग इतना प्रत्यक्ष जुदा दिखता है । ३९१. * - * भगवानकी भक्तिका अर्थ - गुणानुवाद । शास्त्रस्वाध्यायमे तो इससे भी अधिक भक्ति है । ३९२. विकल्पमे दुःख ही दुःख लगना चाहिए । न्याय - युक्तिसे तो ऐसा माने कि ये विकल्प शान्तिको रोकते है, अनुभूतिको रोकते है तो दुःखरूप - है; किन्तु अनुभवमे दुःख लगे तो दुःखसे हटकर सुखकी ओर जावे ही । [ वेदनके विषयको मात्र समझमे लेने जितना ही नही रखना चाहिए । परन्तु सुख-दुख जो वेदनका विषय है, उसकी समझ वेदनसे ( अनुभवसे ) करनी चाहिए । ] ३९३. 柒 बंधन रहित स्वभाव के लिए वांचन-मनन- घूँटण करूँ तो पकड़मे आवे,
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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