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________________ तत्त्वचर्चा १४७ 'दृष्टि' ऐसी प्रधान चीज़ है कि स्वभावमे दृष्टि जमते ही (सब) परिणाम खिलने लगते है। ["दसणमूलोधम्मो ।" जैसे मूलमे पानी सिचनसे वृक्ष पनपता है, वैसे । ] ३६८. पू. गुरुदेवश्री घोलन (निश्चय) से पर है। लेकिन उनके घोलनमे पर-प्रति जो करुणा है उससे न्याय आदि निकलते है । जैसे पिताका धन पुत्र बिना श्रम भोगता है, वैसे ही गुरुदेवश्रीसे मिले हुए न्याय आदिको अपन बिना श्रम भोगो ! ३६९. परिणामसे भी ऊँडा, सूक्ष्माति-सूक्ष्म तत्त्व जो है सो 'मै' हूँ । ३७०. बिजलीका करंट लगते ही भय लगता है और उससे हटना चाहते है। लेकिन त्रिकाली स्वभावमे प्रवेश करते ही आनन्दकी ऐसी सनसनाहट होती है कि उस आनन्दसे क्षण मात्र भी हटना नही चाहते है । ३७१. ज्ञानके उघाड़मे रस लगता है.. तो तत्त्वरसिक जन कहते है कि हमको तेरी बोलीमे रस नही आता, हमे तो तेरी बोली काक पक्षी जैसी ( अप्रिय ) लगती है । ३७२. __सम्यग्दृष्टि जीव अपनेको सदा 'त्रिकाली आत्मा हूँ' ऐसा ही मानते है । 'मै ध्रुव सिद्ध हूँ' -जिसमे सिद्ध-दशाकी भी गौणता रहती है; सिद्ध-दशाका भी प्रति समय उत्साद-व्यय होता है; 'मै तो सदा ध्रुव हूँ। ३७३. अपने नापसे दूसरेका नाप करना - यही दृष्टिका स्वभाव है । ३७४. 'मै त्रिकाली स्वभाव कभी बन्धा ही नही हूँ' तो फिर 'मुझे मुक्त
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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