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________________ तत्त्वचर्चा * भक्तिका रागांश कभी तीव्र आ जाता है, वह भी सहज ही आ जाता है । अपनी तो सहज प्रकृति है, बलजोरी ( हठ ) अपने से नही होती । ३५६. [ अगत ] I १४५ परिणामका विवेक तो जो अनंत सुखी होना चाहते है उनको सहज होना चाहिए । ३५७. * Brand यह अभिप्राय भी हटा दे । 'तू : 'पुरुषार्थ करूँ' 'ज्ञान करूँ' वर्तमानमे ही पुरुषार्थकी खान है' । वर्तमान परिणाम ऊपरकी दृष्टि झूठी है । ३५८. * निमित्तोसे तो किचित् मात्र लाभ नही है; बल्कि, उघाड़ज्ञानसे भी कुछ लाभ नही है । उघाड़ज्ञानमे तुझे हर्ष (रस) आता है तो त्रिकालस्वभावकी तुझे महत्ता नही आई है । [ जिसको स्वयके पूर्ण ज्ञानस्वभावकी महत्ताका भान है, उसको उघाड़ज्ञान - अधूरीज्ञानकी पर्याय -की महत्ता नही आती । ] ३५९ * [ द्रव्य - ] दृष्टि तो अस्थिरता और स्थिरता दोनोको ही नही क़बूलती है । ३६०. * अपने त्रिकालस्वभावको पकड़े [ ज्ञानमे ग्रहण किए ] बिना जीवको निश्चय प्रतीति आएगी ही नही । ३६१. * सहज पुरुषार्थमे थकान नही लगेगी। सोने आदिके भावमें भी दुःख लगेगा, निद्रामे भी थकान लगेगी। [ सहज पुरुषार्थके साथ सहज निराकुलता अविनाभावी रूपसे रहती है, अत सोने आदिके भावमे तथा निद्रामे भी थकान मालूम पड़ती है, ऐसा ही सहज पुरुषार्थका स्वरूप है । स्वस्वभावके अवलम्बनमे
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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