SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) और सिद्ध-पर्यायसे भी अधिकमें [ ध्रुवमे ] अपनापन करनेकी बात है।' १२६ प्रश्न:- पर्यायसे छूटें कैसे ? उत्तरः- पर्यायसे तो छूटे हुए ही हैं। 'त्रिकाली' तो पर्यायमे आता ही नहीं। लेकिन पर्यायमे एकता कर रखी है - वह एकता, त्रिकालीमें थापनेकी है। १२७. ज्ञानीको तो त्रिकालीमे ही अपनापन होनेसे (उसे) वांचन, श्रवण, पूजन आदिमें भी अन्दरसे [ शुद्धिकी ] वृद्धि होती रहती है । १२८. देव, गुरु आदि निमित्तोका सांसारिकविषयोकी अपेक्षासे फ़र्क है; क्योकि सांसारिकविषय तो अपनी ओर झुकनेको कहते है; और देवादिक निमित्त, अपनी ओरके झुकावका निषेध करके स्वात्माकी ओर झुक जावो - ऐसा कहते है। इसलिए देवादिक निमित्तोमे फ़र्क कहनेमे आता है। लेकिन जो जीव, अपनी ओर नही झुकता है और देवादिककी ओर ही झुके रहता है, उसने तो सांसारिक विषयोंकी तरह ही इन्हे भी विषय बना लिया; [ इस कारणसे ] तो कोई फ़र्क रहा नही । १२९. जब मुनिगण अपने लिए अपनी शास्त्रमे रमती हुई बुद्धिको व्यभिचारिणी मानते है, तो नीचेवालोंकी तो व्यभिचारिणीबुद्धि है ही। इसपर भी [ अज्ञानी] जीव यहाँ ऐसे लेते है कि - मुनिगण तो अपने लिए बुद्धि व्यभिचारिणी मानें वह तो ठीक है; परन्तु अपन तो थोड़ी शक्तिवाले हैं, अपनेको तो शास्त्रादिका अवलम्बन लेना चाहिए ही- ऐसे ओथ (आधार) लेकर, वहाँ सन्तोष मानकर, अटक जाते है । 'पहलेमे पहला तो त्रिकालीमें प्रसर जानेका है' यही सर्व प्रथम कर्तव्य है। [शास्त्रमे उपयोग लगाते समय भी यह अभिप्राय होना चाहिए । शास्त्रका अवलम्बन
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy