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________________ ९४ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) शास्त्रोमे एक ही सार है – 'त्रिकालीपनेमे अपनापन जोड़ देना' । ९०. आनन्दके अनुभवमे तो रागसे भी भिन्न चैतन्य-गोला छुट्टा अकेला अनुभवमें आता है, उसके आनन्दकी क्या बात करे !! अन्दरसे निकलना ही गमे नही, बाहरमे आते ही भट्ठी-भट्ठी लगे । ९१. प्रश्न :- पक्के निर्णय बिना 'मै शुद्ध हूँ', 'त्रिकाली हूँ', 'ध्रुव हूँ', ऐसे-ऐसे अनुभवका अभ्यास करे, तो अनुभव हो सकता है क्या ? उत्तर :- नही ! पक्का निर्णय नही, लेकिन यथार्थ निर्णय कहो । यथार्थ निर्णय होनेके बाद ही निर्णयमे पक्कापन होता है, फिर अनुभव होता है । ९२. प्रश्न :- सामान्यका विचार तो ज़्यादा चले नही और विशेषके विचारमें तो निर्विकल्पता होती नहीं ? ___ उत्तर :- 'मै शुद्ध हूँ' 'ऐसा हूँ - ऐसे विकल्प करनेकी बात नही है । और विचार भी तो एक समयकी पर्यायमे होता है । यहाँ तो 'मै ऐसा ही हूँ' - ऐसे त्रिकालीमे अपनापन होकर, अनुभवपूर्वक परिणमन हो जाना चाहिए । विचार आदि तो पर्यायका स्वभाव होनेसे चलता ही है; परन्तु ज़ोर ध्येय स्वभावकी ओर रहता है, तो परिणति त्रिकालीकी और ढल जाती है । ९३. चौथा गुणस्थानवाला जीव द्रव्यलिग धारता है फिर भी स्थिरता कम है; और पंचम गुणस्थानवाला अशुभमे विशेष हो फिर भी (चौथे गुणस्थानवालेसे) स्थिरता विशेष है । क्योकि चौथे गुणस्थानवाले ६ द्रव्यलिगीको शुभभावमे रस अधिक है और वाह्य उपयोग भी अधिक है; जब कि पॉचवे गुणस्थानवाला अशुभभावमे अधिक होते हुए भी (उसे) अन्तरमे ढलन अधिक रहती है। [चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिगीके शुभभावमे
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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