SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) ___अपने त्रिकाली अस्तित्वमे अपनापन होनेसे पर्यायबुद्धि छूट जाती है । २५. विभाव तो मेरेसे बहुत दूर है । यहाँ तो परिणाम [ शुद्धपर्याय ] भी मेरेसे भिन्न है। 'मै तो अपरिणामी हूँ' - एक समयके परिणामके साथ नहीं बहता । २६. प्रश्न :- द्रव्यको परिणामी कहें तो क्या हर्ज है ? उत्तर :- 'परिणाम' 'परिणामी' कहनेमे थोड़ा शब्दफेर है। परिणामसे परिणामीको बतानेमें भी परिणामकी ओर लक्ष्य चला जाता है। इसलिए [ परिणामका लक्ष्य नही करनेके हेतुसे ] 'परिणाम' 'परिणामी' नहीं, परन्तु 'अपरिणामी' और 'परिणाम' - ऐसा कहो । २७. शास्त्रमें व्यवहारकी कितनी बाते जीव स्वच्छन्दमे नही चढ़ जाए, इस हेतुसे होती हैं। ...तो जीव उन बातोंको पकड़कर, घोटालेमे [ एकातमे ] चढ़ जाता है । [- व्यवहारको उपादेय मान लेता है । ]. २८. 'मैं' [त्रिकाली ] परिणाममें नहीं जाता। [त्रिकाली स्वभावमे अपनापन होनेसे ] परिणाम सहज ही मेरी ओर आता है । २९. 'मै वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ, कृतकृत्य हूँ, मुझे कुछ करना-धरना ही नही है' - ऐसी दृष्टि होनेपर, परिणाममे आनन्दका अंश प्रकट होता है; और बढ़ते-बढ़ते पूर्णता हो जाती है । ३०. प्रश्न :- शुद्ध परिणाममें द्रव्य व्यापक है कि नही ? उत्तर :- पूरे द्रव्यकी [प्रमाणज्ञानकी ] अपेक्षासे देखा जाए तो द्रव्य
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy