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________________ ४८ [४४ ] ॐ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) कलकत्ता १०-९-१९६३ अज्ञानतिमिरान्धाना ज्ञानाजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलित येन तस्मै श्रीगुरवे नम ॥ आत्मार्थी - पत्र आपका ता. ३-९का मिला। पहलेवाला पत्र भी यथासमय मिल गया था । दशलक्षणी पर्व, आपने तीन लोकमें परम उत्तम, निर्भय बनानेवाले, परम निर्भय, सिंहस्वरूप श्री गुरुदेवके सान्निध्यमें मनायें होगे । वह कहते हैं“स्वभावअंशमें किचित् भी दोष नहीं है, नित्य स्वभावमे दृष्टि थम्भ जानेसे, उत्पन्न हुए सहज स्वभावमें, क्षमा आदि दूषित भाव प्रत्यक्ष पराश्रित (जड़के ) परके हैं; अतः सहज क्षमाभाव त्रिकाल जयवन्त वर्तो ! हमने कभी दोष किया ही नहीं, ऐसा स्वभाव निरन्तर वृद्धि पामो । विभावकी गूंजमें गूँजता हुआ अज्ञानभाव सहज नाश पामो । विभावमे तनीजो नही। स्वभाव- सीमामे निरन्तर अडिग जमे रहो । क्षणिक विभाव वेदीजता हुआ अधिककी सीमाको पार नही कर सकता, अतः वहीं लय हो जाता है ।" " करता करम क्रिया भेद नही भासतु है, अकर्तृत्व सकति अखण्ड रीति धरै है । याही गवेषी होय ज्ञानमाहि लखि लीजै, याहीकी लखनि या अनन्त सुख भरे है " ॥ ज्ञान कणिका पत्र द्वारा मॅगवाई सो यह तो आपके पास ही है । स्वअवलम्बनसे सहज ही विभावसे पृथक् होकर प्रगटती रहती है । हे शशीभाई ! अनेकानेक जीवोकी योग्यता अक्षय सुखके उदयकी है, अतः तीर्थकर से भी अधिक सत्पुरुषका योग प्राप्त हुआ है, जिनकी नित्य प्रेरणा उधरसे विमुख कराकर स्वयं के नित्य भंडारकी ओर लक्ष्य कराती रहती है; यहाँसे ही पूज्य गुरुदेवके न्याय अनुभवसिद्ध होकर दृढ़ता प्राप्त कराते हैं ।... "जिन (निज) सुमरो जिन चिन्तवो, जिन ध्यावो सुमनेन । जिन ध्यायतहि परमपद, लहिये एक क्षणेन" ॥ वात्सल्यानुरागी निहालचन्द्र
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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