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________________ आठ मूल कर्मोके सवेध भंग (१) एक प्रकृतिक वन्ध, सात प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व (२) एक प्रकृतिक वन्ध, सात प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक सत्त्व तथा (३) एक प्रकृतिक वन्ध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व । इनमे से पहला भंग उपशान्त मोह गुणस्थानमे होता है, क्योकि वहां मोहनीय कर्मके विना सात कर्मोंका उदय होता है किन्तु सत्ता आठो काँकी होती है। दूसरो भग क्षीणमोह गुणम्थानमे होता है, क्योकि मोहनीय कर्मका समूल नाश क्षपक सूक्ष्मसम्पराय मयत जीवके हो जाता है, अत क्षीणमोह गुणस्थानमै उदय और सत्ता सात कर्मोंकी ही पाई जाती है। तथा तीसरा भग सयोगिकेवली गुणस्थानमे पाया जाता है, क्योकि वहा उदय और सत्त्व चार अघाति कर्मोका ही होता है। इस प्रकार ये तीन भंग क्रमश ग्यारहवे, वारहवे और तेरहवे गुणस्थानकी प्रधानतासे होते हैं अत इन तीन गुणस्थानोका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वही क्रमश इन तीन भगोका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। अयोगिकेवली गुणस्थान में किसी भी कर्मका वन्ध नहीं होता किन्तु यहां उदय और सत्त्व चार अघाति कर्मोंका पाया जाता है अत यहा चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्व यह एक ही भग होता है। तथा अयोगिकेवली गुणस्थान के जघन्य और उत्कृष्ट कालके समान इस भग का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त जानना चाहिये । इस प्रकार मूल प्रकृतियो के चन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतिस्थानो की अपेक्षा कुल मवेध भग सात होते हैं। अव आगे इनकी उक्त विशेपताओ का ज्ञापक कोष्टक दिया जाता है जब काल अन्तर सत्त्व प्राइनको उक्त विश
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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