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________________ प्रेस्तावना १--कर्म साहित्यकी क्रम परम्परा का निर्देश परिभाषा-जैनदर्शनमें पुद्गल द्रव्यकी अनेक प्रकारकी वर्गणाएँ चतलाई हैं। इनमेंसे औदारिक शरीर वर्गणा, वैक्रिय शरीर वर्गणा, आहारक शरीर वर्गणा, तैनल वर्गणा, भाषा वर्गणा, श्वासोच्छ्वाम वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मग वर्गणा इन वर्गणाओंको सपारी जीवद्वारा ग्राह्य माना गयाहै । ससारी जीव इन वर्गणाओंको ग्रहण करके विभिन्न शरीर, वचन और मन आदिकी रचना करता है। इनमेंसे प्रारम्भ को तीन वर्गणाश्रोसे भोटारिक, वैक्रिप और माहारक इन तोन शरीरोंकी रचना हाती है। तैजम वर्गणाओंसे तैजर शरीर बनता है। भाषा वर्गणाएँ विविध प्रकारके शब्दोंका आकार धारणा करनी हैं । श्वासोच्छवास वर्गणा श्वासोछ्वामके काम भाती हैं। हिताहितके विचारमें माहाय्य करनेवाले द्रव्यमनकी रचना मनोवर्गणाओंसे होती है। और ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्म कार्मण वर्गणाओंसे बनते हैं। इन सबमें कर्म ससारका मूल कारण माना गया है। वैदिक साहित्यमें जिसका लिग शरीररूपसे उल्लेख किया गया है वह ही जैनदर्शनमें फर्म शब्द द्वारा पुकारा जाता है। वैसे तो संसारी जीवको प्रतिक्षण जो राग द्वेप आदि रूप परिणति हो रही है। उसकी कर्म सज्ञा है। कर्मका अथ क्रिया है, यह अर्थ (७) गोम्मटसार जीवकाण्डमें २३ प्रकारको वर्गणाएँ वतलाई है। उनमेसे आहार वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मण वर्गणा ये ससारी जीवद्वारा प्राय मानी गई है। - -
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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