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________________ सम्पादकीय वक्तव्य सन् ४२ की बात है। जीवन में वस्तुओं की मॅहगाई का अनुभव होने लगा था। आथिक सन्तुलन रखने के लिये अधिक श्रम करने का निश्चय किया। फलतः श्रीमान् प० सुखलाल जी सघवी से बातचीत की। उन्होंने सप्ततिका का अनुवाद करने के लिये मुझसे आग्रह किया। यद्यपि मेरा झुकाव कर्मप्रकृति की ओर विशेष था । फिर भी तत्काल इसका अनुवाद कर देने का ही मैंने निश्चय किया। अनुवाद कार्य तो उसी वर्ष पूरा कर लिया था पर छपाई आदि की विशेष सुविधा न हो सकने के कारण यह सन् ४६ के मध्य तक यों ही पड़ा रहा। अनुवाद में प्राचार्य मलयगिरि कृत टीका का उपयोग हुआ है। विशेषार्थ उसी के आधार से लिखे गये हैं। कहीं कहीं प० जयसोम रचित गुजराती टवे का भी उपयोग किया है। विषय को स्पष्ट करने के लिये यथास्थान कोष्ठक दिये गये हैं। इनके वनाने में मुनि जीवविजय जी कृत सार्थ कर्मग्रन्थ द्वि० माग से सहायता मिली है। टिप्पणियाँ दो प्रकार की दी गई हैं। प्रथम प्रकार की टिप्पणियाँ वे है जिनमें सप्तिका के विषय का गाथाओं से साम्य सूचित होता है। और दूसरे प्रकार की टिप्पणियों वे हैं जिनमें कुछ मान्यताओं के विषय में मतभेद की चर्चा की गई है। ये टिप्पणियाँ हिन्दी में दी गई हैं । आवश्यकतानुसार उनकी पुष्टि मे प्रमाण भी दिये गये हैं। कुछ मान्यताएँ एव सज्ञाएं ऐसी हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर कार्मिक साहित्य में कुछ अन्तर से व्यवहृत होने लगी हैं। इस विषय में हमने श्वेताम्बर परम्परा का पूरा ध्यान रखा है। अहमदावाद निवासी पं० हीराचन्द्रजी कर्मशास्त्र के अच्छे विद्वान् हैं। प्रस्तुत अनुवाद इनके पास भेजा गया था। इन्होंने उसे पढ़कर
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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