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________________ छूट सप्ततिकाप्रकरण अभावमें समुद्र में पैठने पर भी उनकी प्राप्ति होती नहीं ।' ही फलता है विद्या और पौरुप कुछ काम नहीं आता । सामने अपना मस्तक टेक देते हैं। वे जैन कर्मवादके रहस्यको सदा के लिये भूल जाते हैं । 'सर्वत्र भोग्व तत्र चे कर्मके आध्यात्मिक वर्तमानकालीन विद्वान भी इस दोपसे अछूते नहीं बचे हैं। वे भी धन-सम्पत्तिके सद्भाव श्रमभावको पुण्य पापका फल मानते हैं । उनके सामने आर्थिक व्यवस्थाका रसियाका सुन्दर उदाहरण है रसियामें आज भी घोड़ी बहुत मार्थिक विषमता नहीं है ऐसा नहीं है। वह प्रारम्भिक प्रयोग है। यदि afe feat काम होता गया और अन्य परिग्रहवादी राष्ट्रोंका अनुचित दबाव न पड़ा तो यह आर्थिक विषमता थोड़े ही दिनकी चीज है । जैन कर्मवाद के अनुसार साता अनाता कर्मकी व्याप्ति सुख-दुखके माय है, बाह्य पूँजी के सद्भाव लट्टभावके साथ नहीं। किन्तु जैन लेखक और विद्वान आज इस सत्यको सर्वथा भूले हुए हैं । 1 सामाजिक व्यवस्था सम्वन्धमें प्रारम्भमें यद्यपि जैन लेखकोंका उतना दोष नहीं है । इस सम्बन्धमें उन्होंने उदारताको नीति बरती है उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि मत्र मनुष्य एक हैं । उनमें कोई जातिभेद नहीं है । वाह्य तो सी भेद है वह आजीविकाकृत हो है । यद्यपि उन्होंने अपने इस मतका बड़े जोरों से समर्थन किया था किन्तु व्यवहारमें चे इसे निभा न सके। धीरे-धीरे पड़ौसी धर्म के अनुसार उनमें भी जातीय भेद जोर पकड़ता गया । यद्यपि वर्तमानमें हमारे साहित्य और विद्वानोंकी यह दशा है (१) भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौपम् । (२) 'मनुष्यत्रातिरेकैव महापुराण (३) देखो प्रमेयकमल मार्तण्ड |
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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