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________________ सप्ततिकाप्रकरण रहना यह प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है। जितने प्रकारके पदार्थ हैं उन सबमें वह क्रम चालू है। किसी वस्तुमें भी इसका व्यतिक्रम नहीं देखा जाता। अनादि कालसे यह क्रम चालू है और अनन्त कालतक चालू रहेगा। इसके मतसे जिस कालमें वस्तुकी जैसी योग्यता होती है उसीके अनुसार कार्य होता है। जो दव्य, क्षेत्र, काल और भाव जिम कार्य के अनुकूल होता है वह उसका निमित्त कहा जाता है। कार्य अपने उपादानसे होता है किन्तु कार्यनिष्पत्तिके समय अन्य वस्तुको अनुकूलता ही निमितताकी प्रयोजक है। निमित्त उपकारी कहा जा सकता है कर्ता नहीं। इसलिये ईश्वरको स्वीकार करके कार्यमात्रके प्रति उसको निमित मानना रचित नहीं है। हालीसे जैन दर्शनने जगतको अकृत्रिम और अनादि बतलाया है। उक्त कारणसे वह यावत् कार्यों में बुद्धिमानकी आवश्यकता म्वीकार नहीं करता। घटादि कार्यों में यदि बुद्धिमान् देखा भी जाता है तो इससे सर्वत्र बुद्धिमानको निमित्त मानना उचित नहीं है ऐसा इसका मन है। यद्यपि जैन दर्शन कर्मको मानता है तो भी वह यावत् कार्योंके प्रति उसे निमित्त नहीं मानता | वह जीवक्री विविध अवस्थाएँ शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास वचन और मन इन्हीके प्रति कर्मको निमित्त कारण मानता है। उसके मतसे अन्य कार्य अपने अपने कारणों से होते हैं। कर्म उनका कारण नहीं है। उदाहरणार्थ पुत्रका प्राप्त होना, उसका मर जाना, रोजगारमें नफा नुकसानका होना, दूसरेके द्वारा अपमान या सन्मानका किया जाना, अकस्मात् मकानका गिर पड़ना, फसलका नष्ट हो जाना, मनुका अनुकूल प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पढ़ना, रास्ता चलते चलते अपघातका हो जाना, किसीके अपर बिजलीका गिरना, अनुकूल व प्रतिकूल विविध प्रकारके संयोगों व वियोगोंका मिलना आदि ऐसे कार्य है जिनका कारण कर्म नहीं है। भ्रमसे इन्हें कर्माका कार्य (१) उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थस्त्र अध्याय ५ सत्र ३० । -
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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