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________________ सप्ततिकाप्रकरण सामग्रीकी प्राप्तिका निमित्त बतलाते हैं और कोई लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशमको। इन विद्वानोंके ये मत उक प्रमाणोंके बलसे भले ही बने हों किन्तु इतने मात्रसे इनकी पुष्टि नहीं की जा सकती क्योंकि उक्त कथन मूल कर्मव्यवस्थाके प्रतिकूल पहता है। यदि थोडा बहुत इन मतोंको प्रश्रय दिया जा सकता है तो उपचारसे ही दिया जा सकता है। वीरसेन स्वामीने तो स्वर्ग, मोगभूमि और नरकमें सुख दुखकी निमित्तभूत सामग्रोके साथ वहाँ उत्पन्न होनेवाले जीवोंके साता और असाताके उदयका सम्बन्ध देखकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि वाद्य सामग्री साता और असाताका फल है। तथा पूज्यपादस्वामीने ससारी जीवमें बाह्य सामग्रीमें लाभादिरूप परिणाम लाभान्तराय भादिके क्षयोपशमका फल जानकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि लाभान्तराय श्रादिके क्षय व क्षयोपशमसे बाद्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है। तत्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न तो साता असाताका ही फल है और न लाभान्तराय आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका ही फल है। बाह्य सामग्री इन कारणोंसे न प्राप्त होकर अपने अपने कारणोंसे ही प्राप्त होती है। उद्योग करना, व्ययसाय करना, मजदूरी करना, व्यापारके साधन जुटाना, राजा महाराजा या सेठ साहुकारकी चाटुकारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना, भर्जित धनकी रक्षा करना, उसे व्याज पर लगाना, प्राप्त धनको विविध व्यवसायोंमें लगाना, खेती वाही करना, झांसा देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुश्रा खेलना, भीख मागना, धर्मादयको संचित कर पचा जाना आदि बाद्य सामग्रीकी प्राप्तिके साधन है। इन व अन्य कारणोंसे बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है उक्त कारणोंसे नहीं। शंका-इन सब बातोंके या इनमें से किसी एकके करने पर भी हानि देखी जाती है सो इसका क्या कारण है ?
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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