SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ सप्ततिकाप्रकरण हैं। माना कि उसमें यथावस्थित अर्थका ही सुन्दरतासे प्रतिपादन किया गया है पर उसके अनेक भेद प्रभेद हैं अत: पूरी तरह उसका मथन करना कठिन है । इसलिये हमसे जितना वन सका उसके अनुसार उसका अध्ययन करके यह ग्रन्थ निबद्ध किया है। जो विशेष अर्थके जिज्ञासु हैं वे उसका अध्ययन करें और उससे बन्ध, उदय और सत्तारूप कर्मों के भेद प्रभेदोंको समझ लें। अब अपनी लघुताता को दिखलानेके लिये आचार्य अगली गाथा कहते हैं जो जत्थ अपडिपुन्नो अत्थो अप्पागमेण बद्धो त्ति । तं खमिउण बहुसुया पूरेऊणं परिकहंतु ॥ ७२ ।। अर्थ--चू कि मैं अल्प आगम का नाता हूँ या यह आगम का संक्षेप है इसलिये मैंने जिस प्रकरणमें जितना अपरिपूर्ण अर्थ निवद्ध किया है वह मेरा दोष है अतः बहुश्रुत जन मेरे दोपको क्षमा करके और उस अर्थ की पूर्ति करके कथन करे। विशेषार्थ--इस गाथामें अपनी लघुता प्रकट करते हुए आचार्य लिखते हैं एक तो मैं अल्पज्ञ हूँ या यह ग्रन्थ आगमका संक्षेप हैं। इस कारणसे बहुत सम्भव है कि इस ग्रन्थमे मैंने जो विषय विवेचन की शृङ्खला वाँधी है वह स्खलित हो। यद्यपि यह जान बूझकर नहीं किया गया है पर ऐसा होना सम्भव है अतः यह मेरा अपराध है। किन्तु जो वहुश्रुत जन हैं वे मेरे इस दोषको भूल जायें । यदा कदाचित् न भूल सकें तो नमा करें। और जिस प्रकरणमें जो कमी दिखाई दे उसे पूरा कर ले। * हिन्दी व्याख्या सहित सप्ततिकाप्रकरण समाप्त *
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy