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________________ सप्तलिकाप्रकरण इनके कार्य भी जुदे जुदे हो जाते हैं। कभी नियत कालके पहले फर्म अपना कार्य करता है तो कभी नियत कालसे बहुत समयवाद इसका फल देखा जाता है। जिस कर्मका जैसा नाम, स्थिति और फलदान शक्ति है उसीके अनुसार उसका फल मिलता है यह साधारण नियम है। भतवाद इसके अनेक हैं। कुछ कर्म ऐसे अवश्य है जिनकी प्रकृति नहीं बदलती । उदाहरणार्थ चार भायुकर्म । आयु कर्मों में जिस भायुका बन्ध होता है उसीरूपमें उसे भोगना पड़ता है। उसके स्थिति अनुभागमें उलट फेर भले ही हो जाय पर भोग उनका अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार ही होता है। यह कभी सम्भव नहीं कि नरकायुको तिय. चायुरूपसे भोगा जा सके या तिर्यंचायुको नरकायुरूपसे भोगा जा सके । शेष फर्मोंके विषयमें ऐसा कोई नियम नहीं है। मोटा नियम इतना अवश्य है कि मूल कर्म में बदल नहीं होता। इस नियमफे अनुसार दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय ये मूल कर्म मान लिये गये हैं। कर्मकी ये विविध अवस्थाएं हैं जो बन्ध समयसे लेकर उनकी निर्जरा होने तक यथासम्भव होती हैं । इनके नाम ये है बन्ध, सत्व, उत्कर्पण, अपकर्षण, सक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना। ___ बन्ध-कर्मवर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बद्ध होना बन्ध है। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। जिस कर्मका जो स्वभाव है वह उसकी प्रकृति है। यथा ज्ञानावरणका स्वभाव ज्ञानको भावृत करना है। स्थिति कालमर्यादाको कहते हैं। किस कर्मकी जघन्य और उत्कृष्ट कितनी स्थिति पड़ती है इस सम्बन्धमें अलग अलग नियम हैं। अनुभाग फलदान शकिको कहते हैं । प्रत्येक कर्ममें न्यूनाधिक फल देनेकी योग्यता होती है। प्रति समय बंधनेवाले कर्मके परमाणुओं की परिगणना प्रदेशबन्धमें की जाती है। , सत्त्व-बंधने के बाद कर्म भात्मासे सन्बद्ध रहता है। तत्काल
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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