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________________ प्रयोगकेवली कार्य ३७ विशेषार्थ - यह नियम है कि सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे किसी एक वेदनीयकी उदय व्युच्छित्ति हो जाती है | यदि साताकी उदयव्युच्छित्ति हो जाती है तो अयोगी अवस्थामें असाताका उदय रहता है और यदि असाताकी उदयव्यच्छित्ति हो जाती है तो आयोगी अवस्थामे साताका उदय रहता है इसी बात को ध्यान में रखकर गाथामें 'अन्यतर वेदनीय' कहा है । दूसरे गाथामें उत्कृष्टरूपसे बारह और जघन्य रूपसे ग्यारह प्रकृतियोके उदय बतलानेका कारण यह है कि सब जीवोंके तीर्थकर प्रकृतिका उदय नहीं होता । जिन्होने तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया होता है उन्हींके उसका उदय होता है अन्यके नहीं, अत' अयोगी अवस्था में अधिक से अधिक वारह और कमसे कम ग्यारह प्रकृतियोका उदय बन जाता है । बारह प्रकृतियो का नामोल्लेख गाथामें किया ही है । अव अगली गाथा द्वारा अयोगी अवस्थामें उदय योग्य नामकर्मकी नौ प्रकृतिया बतलाते हैं मणुयगह जाइ तस वायरं च पजतसुभगमाइज । जसकित्ती तित्थयरं नामस्स हवंति नव एया ॥६७॥ ऋर्थ मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति और तीर्थकर ये नामकर्मकी नौ प्रकृतिया हैं जिनका प्रयोगी अवस्था में उदय होता है । मनुष्यानुपूर्वीकी सत्ता उपान्त्य समयतक होती है या अन्तिम समय तक आगे अगली गाथा द्वारा इसी मतभेदका निर्देश करते हैंतच्चापुव्विसहिया तेरस भवसिद्धियस्स चरिमम्मि । संतं सगमुकोसं जहन्नयं बारस हवंति ॥ ६८ ॥ -
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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