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________________ ३७० सप्ततिकाप्रकरण करता है। जब यह जीव दूसरी किट्टीका वेदन करता है तब तीसरी किट्टीके दलिककी सूक्ष्म किट्टी करता है यह क्रिया भी दूसरी किट्टीके वेदनकालके समान एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेप रहने तक चालू रहती है। जिस समय सूक्ष्म किट्टी करनेका कार्य समाप्त होता है उसी समय सज्वलन लोभका बन्धविच्छेद, बादर कपायके उदय और उदीरणाका विच्छेद तथा अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थानके कालका विच्छेद होता है। तदनन्तर सूक्ष्म किट्टीकी दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और उसका वेदन करता है। इसी समयसे यह जीव सूक्ष्म सम्पराय कहा जाता है । सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानके काल में एक भागके शेष रहने तक यह जीव एक समय कम दो आवलिकाके द्वारा बँधे हुए सूक्ष्म किट्टी गत दलिकका स्थिति घातादिकके द्वारा प्रत्येक समयमें क्षय भी करता है। तदनन्तर जो एक भाग शेष बचा है उसमें सर्वापवर्तनाके द्वारा संज्वलन लोभका अपवर्तन करके उसे सूक्ष्मसम्परायके कालके बरावर करता है। यह सूक्ष्म सम्परायका काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। यहाँसे आगे संज्वलन लोभके स्थितिघात आदि कार्य होना बन्द हो जाते है, किन्तु शेष कर्मोंके स्थितिघात आदि कार्य बराबर होते रहते हैं। सर्वापवर्तनाके द्वारा अपवर्तित की गई इस स्थितिका उदय और उदीरणाके द्वारा एक समय अधिक एक आवलिका कालके : शेष रहने तक वेदन करता है। तत्पश्चात् उदीरणाका विच्छेद हो जाता है और सूक्ष्म सम्परायके अन्तिम समय तक सूक्ष्म लोभका केवल उदय ही रहता है। सूक्ष्मसम्परायके अन्तिम समयमें ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और अन्तरायकी पाँच इन सोलह प्रकृतियोका बन्ध
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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