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________________ चारित्रमोहनीयकी क्षपणा अनुभागको अनन्तगुणाहीन करके अन्तरालसे स्थापित किया जाता है उसकी किट्टीकरण संज्ञा है। और इन किट्टियोंके वेदन करनेको किट्टीवेदन कहते हैं। इनमेंसे जब यह जीव अश्वकर्णकरणके कालमें विद्यमान रहता है तब चारो सज्वलनोकी अन्तर करणसे ऊपरकी स्थितिमें प्रति समय अनन्त अपूर्व स्पर्धक करता है। तथा एक समय कम दो प्रावलिका प्रमाण कालमें बद्ध पुरुषवेदके दलिकोको इतने ही कालमें क्रोधसज्वलनमे सक्रमण कर नष्ट करता है। यहाँ पहले गुणसक्रम होता है और अन्तिम समयमें सर्वसक्रम होता है। अश्वकर्णकरणकालके समाप्त हो जाने पर किट्टीकरणकालमे प्रवेश करता है। यद्यपि किट्टियाँ अनन्त हैं पर स्थूलरूपसे वे वारह होती हैं। जो प्रत्येक कषायमे तीन तीन प्राप्त होती हैं। किन्तु जो जीव मानके उदयसे आपकश्रेणिपर चढ़ता है वह उद्वलनाविधिसे क्रोधका क्षय करके शेष तीन कषायोंकी नौ किट्टी करता है। यदि मायाके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है तो क्रोध और मानका उद्वलनाविधिसे क्षय करके शेप दो कषायोंकी छह किट्टियाँ करता है। और यदि लोभके उदयसे जीव क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है तो उद्वलनाविधिसे क्रोधादिक तीनका क्षय करके लोभकी तीन किट्टी करता है। इस प्रकार किट्टी करणके कालके समाप्त हो जाने पर क्रोधके उदयसे क्षपकणि पर चढ़ा हुआ जीव क्रोधकी प्रथम किट्टीकी द्वितीय स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक पावलिका प्रमाण कालके शेष रहने तक उसका वेदन करता है। तत्पश्चात् दूसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाण कालके शेप रहने तक उसका वेदन करता है। तत्पश्चात् तीसरी किट्टी
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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