SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४ सप्ततिकाप्रकरण आयुवाले मनुष्यों और तिर्यचोंमें ही उत्पन्न होता है इसलिये वह नियमसे चौथे भवमे ही मोक्षको प्राप्त होता है । अव यदि श्रद्धायु जीव क्षपकश्रेणिका आरम्भ करता है तो वह सात प्रकृतियोका क्षय हो जाने पर चारित्रमोहनीय कर्मके क्षय करनेका यत्न करता है चूंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला मनुष्य श्रद्धा ही होता है इसलिये इसके नरकाय देवायु और तिर्यंचायुका सत्त्व तो स्वभावत ही नहीं पाया जाता है । तथा चार अनन्तानुवन्धी और तीन दर्शनमाहनीयका क्षय पूर्वोक्त क्रमसे हो जाता है अत चरित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके उक्त इस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे नहीं होता यह सिद्ध हुआ। जो जीव चरित्रमोहनीयकी क्षपणा करता है उसके भी यथाप्रवृत्त आदि तीन करण होते हैं । यहाँ यथाप्रवृत्तकरण सातवें गुणस्थान में होता है । और आठवे गुणस्थानकी पूर्वकरण और नौ गुणस्थानकी श्रनिवृत्तिकरण संज्ञा है । इन तीनों करणीका खुलासा पहले कर आये हैं इसलिये यहाँ नहीं किया जाता है । यहाँ पूर्ण करामें यह जीव स्थितिघात आदिके द्वारा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपायकी आठ प्रकृ तियोका इस प्रकार क्षय करता है जिससे नौवें गुणम्थानके पहले समय में उनकी स्थिति पल्यके असंख्यातत्रे भागप्रमाण शेष रहती है। तथा अनिवृत्तिकरण के संख्यात वहुभागोके बीत जाने पर स्त्यानर्द्धिन्त्रिक, नरकगति, नरकानुपूर्वी तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी. एकेन्द्रिय जानि, द्वीन्द्रियजाति, तीनेन्द्रियजाति, चार इन्द्रियजाति, स्थावर, श्रातप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियोकी स्थिति की उलना संक्रमके द्वारा उदूलना होने पर वह पल्यके असख्याती भागमात्रं शेष रह जाती है । तदनन्तर गुणसंक्रमके द्वारा उनका प्रति समय वध्यमान प्रकृतियोंमें प्रक्षेप करके उन्हें 1
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy