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________________ ३६२ सप्ततिकाप्रकरण उपर्युक्त इन स्थितिखडोका घात करते समय मिथ्यात्वसम्बन्धी दलिकीका सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्व में निक्षेप किया जाता है । सम्यग्मिथ्यात्व सम्बन्धी दलिकोका सम्यक्त्वमें निक्षेप किया जाता है और सम्यक्त्वसम्बन्धी दलिकोका अपने कम स्थितिवाले दलिकोमें ही निक्षेप किया जाता है। इस प्रकार जव मिथ्यात्वके एक अवलिप्रमाण दलिक शेष रहते है तब उनका भी स्तिबुकसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्वमे निक्षेप किया जाता है । तदनन्तर सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके असंख्यात भागोका घात करता है और एक भाग शेप रहता है । तदनन्तर जो एक भाग बचता है उसके असंख्यात भागोका घात करता है और एक भाग शेष रहता है। इस प्रकार इस क्रमसे कितने ही स्थितिखंडोंके व्यतीत हो जाने पर सम्यग्मिथ्यात्वकी भी एक अवलिप्रमाण और सम्यक्त्वकी आठ वर्षप्रमाण स्थिति शेष रहती है। इसी समय यह जीव निश्चयनयकी दृष्टिसे दर्शनमोहनीयका क्षपक माना जाता है । इसके बाद सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिखंडकी उत्कीरणा करता है । उत्कीरणा करते समय दलिकका उदय समय से लेकर निक्षेप करता है । उदय समयमे सबसे थोड़े दलिकोका निक्षेप करता है । दूसरे समय में असंख्यातगुणे दलिकोका निक्षेप करता है। तीसरे समय में असंख्यातगुणे दलिकोंका निक्षेप करता है । इस प्रकार यह क्रम गुणश्र णीशीर्ष तक चालू रहता है । इसके आगे अन्तिम स्थिति प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर कम कम दलिकोका निक्षेप करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अनेक स्थितिखडोकी उत्कीरणा करके उनका अधस्तन स्थिति मे निक्षेप करता है । इसके यह क्रम द्विचरम स्थितिखण्ड के प्राप्त होनेतक चालू रहता है । किन्तु द्विचरम स्थितिखंड से अन्तिम स्थितिखड संख्यातगुणा बड़ा होता है ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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