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________________ ३५० नमतिकाप्रकरण करण है। किट्टी करण कालके अन्तिम समयमें अप्रत्याख्याना वरण लोभ प्रत्याख्यानावरण लोमका उपशम करता है। नया उसी समय संज्वलन लोभका बन्धविच्छेद होना है और वादा संचलनके उदय तथा उदीरणाके विच्छेदके साथ नौ गुणम्या नका अन्त हो जाता है। इसके बाद सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान होता है। इसका काल अन्नमुहत है। इसके पहले समयमें उपरिनन स्थितिमेंसे कुछ किट्टियाँको लेकर सूक्ष्मसम्पराय कालके वरावर उनकी प्रथम स्थिति करके वेदन करता है और एक समय कम ही आवलिकामें बंधे हुए सूक्ष्म अवस्थाको प्राम शेष दृनिकोंग उपशम करता है । तदनन्तर मूत्मसम्पराय गुणन्यान अन्तिम समयमे मंचलन लोभका उपशम हो जाता है और उसी समय बानाबरणनी पाँच दर्शनावरणकी चार, अन्नरायकी पाँच, यशाचीनि और उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियोंकी अन्यत्र्युछिनि होती है। इसके बाद दमरे समयमें ग्यारहवाँ गुणल्यान उपशान्त कषाय होता है। इसमें मोहनीयकी मत्र प्रकृतियाँ उपशान्त रहती हैं। उपशान्तकयायका जघन्य काल' एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। इसके बाद इसका नियनसे पतन होता है। पतन दो प्रकारस होता है भवनयस और अद्धाजयसे । आयुके समाप्त हो जाने पर जो पतन होता है उसे भवन्यसे होनेवाला पनन कहते हैं। यहाँ भवका अर्थ पर्याय है और नयका अर्थ विनाश ! तथा उपशान्नपायके भालके समाप्त हो जाने पर जो पतन होता है उसे अद्धाक्षयसे होनेवाला पतन कहते हैं। जिसका भवक्षयसे पतन होता है उसके अनन्तर समयमें अविरतमुन्यष्टि गुणन्यान होता है और उसके पहले समयमें ही वन्वादिक सब करणोंका प्रारम्भ हो जाता है। जिलग अद्धाञ्जयसे पतन होना है.वह निस क्रमसे चढ़ता है।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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