SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ समतित्राप्रकरण मानकर इसे गुरकून मानता है। अच्छे श्राधारखालकी परम्परा जो जन्म देते हैं या जो ऐसे लोगोंकी मत्संगति करते हैं या जो मानवोचित चाचारको जीवन में है माने गये है और जिनकी स्पिति इनके बिन्दु है वे गोत्र माने गये है। नीचगोत्री बुरे आवारका त्याग करके पोत्री हो सकता है । चैन बसके अनुसार ऐसे जीवको श्रावक और सुनि होने पूरा अधिकार है । अन्तराय - जीवके दानादि मात्र प्रकट न होने के निमित कर्मकी अन्तरान संज्ञा है। इसके पाँच मे हैं। ये सब कर्म यन चार भागों में बटे हुए हैं जीवविपाकी, दुलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और विपाकी । जिनका विपाक जीवमें होता है ये जीवविपी हैं । जिन्का दिपा जीवने एक क्षेत्रवाह प्राप्त हुए डुगलों में होता है वे विपाकी हैं। जिका विपाकी है और farst fame क्षेत्र विपाक में होता है वे विशेष होता है वे क्षेत्र विपाकी हैं। 3 ये और पापके भेद दो प्रकार है। ये भेद अनुभाग बन्धकी रुपेलासे किये गये हैं । दान, पूजा, मन्दकषाय, साधुसेवा आदि शुभ परिणामोंमें जिन कमाउन्ट अनुभाग प्राप्त होता है वे पुण्यकर्म हैं। और मदिरारान, मांसवन, परस्त्री गमन, शिकार करन्न हुन खेलना, रात्रि भोजन करना, सुरे भाव रखना, वी दगाबाजी करना आदि शुभ परिणामोंसे दिन कमोंका स्कट अनुभाव प्राप्त होता है वे पापकर्म हैं। अनुभाग-चि घाति और स्वातिके मेमे दो प्रकारको है । घातिरूप अनुभागशष्टि के तारतम्या अपेक्षामे चार भेद हो जावे हैं। ना, दात (लकड़ी ) तन्यि और शैल | यह पापरूप ही होती है । किन्तु विरूप धनुभागशक्ति पुण्य और पाप दोनों प्रकारकी होती है। इससे प्रत्येकके चार चार मे है। गुड़, सांड, शक्श और अमृत के
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy