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________________ चारित्रमोहनीयको उपशमना ३५१ अर्थात्- 'खीवेद और नपुंसक वेदके कालसे पुरुषवेदका काल संख्यात गुणा है। इससे क्रोधका काल विशेष अधिक है। आगे भी इसी प्रकार यथाक्रम विशेष अधिक काल जानना चाहिये ।' नो सज्वलन क्रोधके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके जवतक अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्यारख्यानावरण क्रोधका उपशम नहीं होता है तब तक संज्वलन क्रोधका उदय रहता है । जो संन्वलन मानके उदयसे उपशम श्रेणि पर चढ़ता है, उसके जबतक अप्रत्याख्यानावरण मान और प्रत्याख्यानावरण मानका उपशम नहीं होता है तब तक सज्वलन मानका उदय रहता है । जो संम्वलन मायाके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके जब तक अप्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण मायाका उपशम नहीं होता है तबतक सन्चलन मायाका उदय रहता है । तथा जो सब्वलन लोभके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके जब तक अप्रत्याख्यानावरण लीभ और प्रत्याख्यानावरण लोभका उपशम नहीं होता है तबतक सब्बलन लोभका उदय रहता है। जितने कालके द्वारा स्थितिखण्डका घात करता है या अन्य स्थितिका बन्ध करता है, उतने ही कालके द्वारा अन्तरकरण करता है, क्योकि इन तोनोका आरम्भ और समाप्ति एक साथ होती है । तात्पर्य यह है कि जिस समय अन्तरकरण क्रियाका आरम्भ होता है । उसी समय अन्य स्थितिखण्डके घातका और अन्य स्थितिबन्धका भी आरम्भ होता है और अन्तरकरण क्रिया के समाप्त होने के समय ही इनकी समाप्ति भी होती है । इस प्रकार अन्तरकरणके द्वारा जो अन्तर स्थापित किया जाता है उसका प्रमाण प्रथम स्थितिसे संख्यातगुणा है । अन्तरकरण करते समय जिन कर्मोंका बन्ध, और उदय होता है उनके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकोंको प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थितिमें क्षेपण करता है ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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