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________________ अनन्तानुबन्धीकी उपशमना ३४३ । जीवोंके परिणाम सर्वथा भिन्न ही होते हैं। तात्पर्य यह है कि अनिवृत्तिकरणके पहले ममयमें जो जीव हैं, थे और होगे उन सबके परिणाम एक से ही होते हैं। दूसरे समयमें जो जीव हैं, थे और होंगे उनके भी परिणाम एकसे ही होते हैं। इसी प्रकार तृतीयादि समयों में भी समझना चाहिये । अनिवृत्तिकरणके इसलिये जितने समय हैं उतने ही इसके परिणाम होते हैं न्यूनाधिक नहीं । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके प्रथमादि समयों में जो विशुद्धि होती है द्वितीयादि समय में वह उत्तरोत्तर अनतगुणी होती है । पूर्णकरणके स्थितिघात आदि पाची कार्य अनिवृत्तिकरणमें भी चालू रहते हैं। इसके अन्तर्मुहूर्त कालमेंसे सख्यात भागोके वीत जाने पर जब एक भाग शेप रहता है तब अनन्तानुबन्धीचतुष्क के एक श्रावलिप्रमाण नीचेके निपेकोको छोड कर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निपकोका अन्तरकरण किया जाता है। इस क्रियाके करनेमें न्यूतन स्थितिबन्ध के कालके बराबर समय लगता है । एक आवलि या अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नीचेकी और ऊपर की स्थितिको छोड़कर मध्यमे से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ढलिकोंको उठाकर उनका वधनेवाली अन्य सजातीय प्रकृतियोमं प्रक्षेप करनेका नाम अन्तरकरण है । यदि उदयवाली प्रकृतियोका अन्तरकरण किया जाता है तो उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण छोड़ दी जाती है और यदि अनुदयवाली प्रकृतियोका अन्तरकरण किया जाता है तो उनकी नीचेकी स्थिति श्रवलिप्रमाण छोड़ दी जाती है। चूकि यहा अनन्तानुवन्धी चतुधकका अन्तर करण करना है। किन्तु उसका चौथे आदि गुणस्थानों में उदय नहीं होता इसलिये इसके नीचेके आवलि प्रमाण दलिकोको छोडकर ऊपर के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकोंका अन्तरकरण किया जाता है । अन्तरकरणमे अन्तरका अर्थ व्यवधान और करण का अर्थ किया है। तदनुसार जिन प्रकृतियोका अन्तर
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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