SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिकाप्रकरण होते इसलिये योग और कपाय तथा कर्मभावको प्राप्त हुए पुदगल परणाणु ये दोनों कर्म कहलाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।। कर्मवन्धके हेतु-यह हम पहले ही बतला भाये हैं कि भात्मा मिथ्यात्व (अतत्वश्रद्धा या तत्त्वचिका प्रभाव) अविरति (त्यागरूप परिणतिका अभाव ) प्रमाद ( अनवधानता ) कषाय (क्रोधादिभाव ) और योग (मन, वचन और कायका व्यापार ) के कारण अन्य द्रव्यसे बन्धको प्राप्त होता है। पर इनमें बन्धमानके प्रति योग और कपायकी प्रधानता है। आगे वन्धके चार भेद बतलानेवाले हैं उनमेंसे प्रकृति. बन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होता है तथा स्थिति बन्ध और अनुभाग वन्ध कायसे होता है। आगममें योगको गरम लोहेकी और कपायको गोंदकी रुपमा दी गई है। जिस प्रकार गरम लोहेको पानी में डालने पर वह चारों ओरसे पानीको खींचता है ठीक यही स्वभाव योगका है और जिस प्रकार गोंदके कारण एक कागज दूहरे कागजसे चिपक जाता है ठीक यही स्वभाव कपायका है। योगके कारण म परमाणुओंका मानव होता है और पायके कारण वे बंध जाते हैं। इसलिए कर्मवन्धके मुख्य कारण पाँच होते हुए भी उनमें योग और कपायकी प्रधानता है। प्रकृति मादि चारों प्रकारके बन्धके लिये इन दो का सद्भाव अनिवार्य है। जब कर्मके भवान्तर भेदों में कितने कर्म किस हेतुसे वंधते हैं इत्यादि रूपसे हमवन्धके सामान्य हेतुओंका वर्गीकरण किया जाता है तब चे पाँच प्राप्त होते हैं और जब प्रकृति श्रादि चार प्रकारके बन्धोंमें (१) 'मित्वात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा' बन्धहेतव ।' --त. सू०८-१॥ (२) 'जोगा पयडिपदेसा ट्ठिदिनणुभागो कसायदो होदि।' -द्रव्य गा० ३१।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy