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________________ गुणस्थानोमे प्रकृतिबन्ध ३३१ अप्रमत्तसयत भी हो जाता है और इस प्रकार अप्रमत्न सयत भी देवायुका बन्धक होता है। परन्तु अप्रमत्त सयत गुणस्थानमें देवायु का बन्ध होता है इससे यदि कोई यह समझे कि अप्रमत्त संयत भी देवायुके वधका प्रारभ करता है सो उसका ऐसा समझना ठीक नहीं है । इस प्रकार इसी वातका ज्ञान करानेके लिये ग्रंथकारने 'अप्रमत्त सयत भी देवायुका बन्ध करता है' यह वचन दिया है। अब इन ५९ प्रकृतियोमेंसे देवायुका बन्ध विच्छेद होजाने पर अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव पहले सल्यातवें भागमे ५८ प्रकृतियोका बन्ध करता है। तदनन्तर निद्रा और प्रचलाका वन्धविच्छेद हो जाने पर सख्यातवें भागके शेष रहने तक ५६ प्रकृतियो का बन्ध करता है। तदनन्तर देवगति, देवानुपूर्वी, पचेन्द्रिय जाति, वैक्रियशरीर, वैवियागोपाग, आहारक शरीर आहारक आगोपग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसस्थान, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, त्रम, वादर, पर्याप्त. प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण और तीर्थकर इन ३० प्रकृतियोका बन्धविच्छेद होजाने पर अन्तिम भागमे २६ प्रकृतियोका बन्ध करता है। वांबीसा एगूणं बंधइ अट्ठारसंतमनियट्टी। सत्तर सुहमसरागो सायममोहो सजोगि शि॥ ५९ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिवादर जीव २२ का और इसके बाद क्रम में एक एक कम करते हुए २१, २०, १९ और १८ का वध करता (१) 'हासरईमयकुच्छाविरमे बावीस पुन्वमि ॥ पुवेयकोहमाइसु अवज्झमाणेसु पच ठाणागि । वारे सुहमे सत्तरस पगतिओ सायमियरेसु ' पञ्च० सप्त. गा० १४४-१४५। 'दुवीस सत्तारसेकोघे ॥' गो० कर्म० गा० १.३.
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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