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________________ गुणस्थानोंमें प्रकृतिबन्ध ३६९ किन्तु यहाँ इनके अतिरिक्त ७४ प्रकृतियोका वन्ध अवश्य होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि ४३ के विना ७७ का वध करता है इसका यह आशय है कि अविरतसम्यग्दृष्टि जीवके मनुष्यायु, देवायु और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है अतः यहाँ १२० मेसे ४६ न घटाकर ४३ ही घटाई है और इस प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टिके ७७ का बन्ध बतलाया है। देशविरतमे ५३ के बिना ६७ का बन्ध होता है। इसका यह आशय है कि अप्रत्याख्यानावरणके उदयसे जिन दस प्रकृतियोका बन्ध अविरत सम्यग्दृष्टिके होता हे उनका वन्ध देशविरतके नहीं हाता, अत चौथे गुणस्थानमें जिन ४३ प्रकृतियोको घटाया है उनमे इन १० प्रकृतियोके मिला देने पर देशविरतमें बन्धके अयोग्य ५३ प्रकृतियाँ हो जाती हैं और इनसे अतिरिक्त रहीं ६७ प्रकृतियोका वहाँ बन्ध होता है । अप्रत्याख्यानावरणके उदयसे बँधनेवाली वे १० प्रकृतियॉ ये हैंअप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, ओदारिकशरीर, औदारिक आंगोपाग और बज्रर्पभनाराच सहनन । तथा प्रमत्तविरतमें ५७ के विना ६३ का बन्ध होता है ऐसा कहनेका यह तात्पर्य है कि प्रत्याख्यानवरणके उदयसे जिन प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका देशविरत गुणस्थान तक बन्ध होता है उनका प्रमत्त विरतके नहीं होता, अत जिन ५३ प्रकृतियों को देशविरतमें वधनेके अयोग्य बतलाया है उनमें इन चारके और मिला देने पर प्रमत्त विरतमें ५७ प्रकृतिया बँधनेके अयोग्य होती हैं और इस प्रकार यहाँ ६३ प्रकृतियोका बन्ध प्राप्त होता है।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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