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________________ ३०० सप्ततिकाप्रकरणः पाँच उदयस्थान होते हैं। और इनमेंसे प्रत्येक उदयस्थानमें ९२ और ८८ ये दो दो सत्तास्थान होते हैं। तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवके तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध नहीं होता, अत यहाँ ८९ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं कहा। मनुष्यगति प्रायोग्य २६ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले नारकीके तो पूर्वोक्त पाँचो उदयस्थान होते हैं। और प्रत्येक उदयस्थान में १२, ८६. और ८८ ये तीन तीन सत्ताम्थान होते हैं । तीर्थकर प्रकृति की सत्तावाला मनुष्य नरकम उत्पन्न होकर जब तक मिथ्यादृष्टि रहता है तब तक उसके तीर्थकरके बिना २६ प्रकृतियोका बन्ध होता है, अतः २६ प्रकृतिक बन्धथानमें ८८ की सत्ता बन जाती है। तथा नरकगतिमे ३० प्रकृतिक वन्धस्थान दो प्रकार से प्राप्त होता है एक उद्योत सहित और दूसरा तीर्थकर सहित । जिसके उद्योत सहित ३० प्रकृतिक वन्धस्थान होता है उसके उदयम्थान तो पूर्वोक्त पाँचो होते हैं किन्तु मत्तास्थान प्रत्येक उदयस्थानमें दो दो होते हैं १२ और ८८ । तथा जिसके तीर्थकर सहित ३० प्रकृतिक वन्धस्थान होता है उसके पाँचो उदयस्थानोमे से प्रत्येक उदयस्थानमे प्रकृतिक एक एक सत्तास्थान ही सम्भव है। इस प्रकार नरकगतिमें सब वन्धस्थान और उदग्रस्थानोंकी अपेक्षा ४० मत्तास्थान । प्राप्त होते हैं।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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