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________________ ३२ सप्ततिकाप्रकरण पदार्थ क्या जिस रूपमें बँधता है उसी रूपमें बना रहता है या परिस्थितिवश उसमें न्यूनाधिक परिवर्तन भी होता है आदि सभी प्रश्नोंका विस्तृत ममाधान किया गया है। आगे हम उक प्रश्नों के आधारसे इस विषयकी चर्चा कर लेना इष्ट समझते हैं। __संसारकी अनादिता-जैसा कि हम पहले ववला पाये हैं कि जीवके समारी और नुक ये दो भेद हैं । जो चतुर्गति योनियों में परिभ्रमण करता है ससे संसारी कहते हैं इसका दूसरा नाम वद भी है। और जो समारसे मुक्त हो गया है उसे मुफ कहते हैं। ये दोनों भेद अवस्याकृत होते हैं। पहले जीव संसारी होता है और जब वह प्रयत्नपूर्वक ससारका अन्त कर देता है तब वही मुफ हो जाता है। मुक्त होने के बाद जीव पुनः ससारमें नहीं आता । उस समय उसमें ऐसी योग्यता ही नहीं रहती जिससे वह पुनः कर्मबन्धको प्राप्त कर सके। कर्मवन्धका मुख्य कारण मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग है। जब तक इनका सदुमाव पाया जाता है तभी तक कर्मबन्ध होता है। इनका जमाव होने पर जीव मुक्त हो जाता है। इससे कर्मबन्धक मुख्य कारण मिथ्यात्व आदि हैं यह ज्ञात होता है। ये मिथ्यात्व आदि जोदके वे परिणाम है जो वद्धदशामें होते हैं । अबद्ध जीवके इनका सदभाव नहीं पाया जाता। इससे कर्मबन्ध और मिथ्यात्व आदिका कार्यधारण भाव सिद्ध होता है। बद्ध जीवके कर्माका निमित्त पाझर मिथ्यात्व आदि होते हैं और मिथ्यात्व सादिके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है यह कार्यकारण भावको परम्परा है। इसी भावको स्पष्ट करते हुए समयप्रामृत में लिखा है 'जीवपरिणामहेहूँ कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुरगलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।।८।। (१) संसारिणो मुनश्च ।-त० सू०२-१०।।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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