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________________ गुणस्थानोंमें नामकर्मके सवेध भग २८१ अविरति सम्यग्यदृष्टि गुणस्थानमें तीन बन्धस्थान हैं -- २८, २६ और ३० | देवगतिके योग्य प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले अविरत सम्यदृष्टि तिर्यच और मनुष्योके २८ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । इसके आठ भग हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य शेप गतियोके योग्य प्रकृतियोंका वन्ध नहीं करते इसलिये यहाँ -नरक गतिके योग्य २८ प्रकृतिक वन्धस्थान नहीं प्राप्त होता । २९ प्रकृतिक वन्धस्थान दो प्रकारसे होता है। एक तो तीर्थंकर प्रकृतिके साथ देवगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले मनुष्योके होता है । इसके भी आठ भग होते हैं। दूसरा मनुष्यगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले देव और नारकियो के होता है । यहाँ भी वे ही आठ भंग होते हैं । तथा तीर्थकर प्रकृतिके साथ मनुष्यगतिके योग्य प्रकृतियोंक्का बन्ध करनेवाले देव और नारकियोंके ३० प्रकृतिक बन्धस्थान होता है। इसके भी वे ही आठ भंग होते है । यहाँ उदयस्थान ८ होते हैं - २१, २५, २६, २७, २८, २२, ३० और ३१ । इनमेसे २१ प्रकृतियोका उदय नारकी, तिर्यच पचेन्द्रिय मनुष्य और देवोके जानना चाहिये। क्योकि जिसने श्रायुकर्मके बन्धके पश्चात् क्षायिकसम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है उसके चारो गतियो मे २१ प्रकृतिक उदयस्थान सम्भव है । किन्तु अविरत सम्यदृष्टि जीव अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न नहीं होता अतः यहाँ अपर्याप्तक सम्बन्धी अंगोको छोड़ कर शेष भग पाये जाते हैं । जो तिर्यच पंचेन्द्रियो के ८, मनुष्योंक्रे म, देवोके म और नारकियोका १ इस 1
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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