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________________ गुणस्थानों में नामकर्मके संवैध भंग सास्वादनमे बन्धस्थान तीन हैं -२८, २६ और ३० । इसमेंसे २८ प्रकृतिक बन्धस्थान दो प्रकार का है नरक गति प्रायोग्य और देवगति प्रायोग्य । सास्वादन जीवों के नरकगति प्रायोग्य का तो वन्ध होता नहीं। देवगति प्रायोग्य का होता है सो उसके वन्धक पर्याप्त तिर्यंच पचेन्द्रिय और मनुष्य होते हैं। इसके आठ भंग होते हैं। यद्यपि २६ प्रकृतिक वन्धस्थानके अनेक भेद हैं किन्तु सास्वादन में बंधने योग्य इसके दो भेद हैं-तियंच गतिप्रायोग्य और मनुष्यगतिप्रायोग्य । सो इन दोनो को सास्वादन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, तिथंच पचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारकी जीव वाँधते हैं । यहाँ इसके कुल भग ६४०० होते हैं, क्योंकि यद्यपि सास्वादन तिथंचगतिप्रायोग्य या मनुष्यगति प्रायोग्य २६ प्रकृतियों को बांधते हैं तो भी वे हुडसस्थान और सेवात सहनन का वन्ध नहीं करते, क्योंकि इन दो प्रकृतियो का बन्ध केवल मिथ्यत्व गुणस्थान मे ही होता है, अत. यहाँ पाँच सहनन, पाँच सस्थान प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति युगल, स्थिर अस्थिर युगल, शुभअशुभ युगल,सुभग-दुभंगयुगल,सुस्वर दुःस्वरयुगल,आदेय-अनादेययुगल और यश.कीर्त-अयश कीर्ति युगल इस प्रकार इनके परस्पर गुणित करने पर ३२०० भग होते है । ये ३२०० भंग तिर्यंचगतिप्रायोग्यके भी होते हैं और मनुष्यगति प्रायोग्यके भी होते है। इस प्रकार कुल भंग ६४०० हुए । तथा यद्यपि ३० प्रकृतिक बन्धस्थानके अनेक भेद हैं किन्तु सास्वादनमे बँधने योग्य यह एक उद्योतसहित तिथंचगति प्रायोग्य ही है। जिसे सास्वादन एकेन्द्रिय, १८
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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