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________________ गुणस्थानोमें नामकर्मके बन्धादि स्थान २६५ अर्थात्–'मिथ्यादृष्टि जीवके २३ २५, २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक वन्त्रस्थानके क्रमसे ४,२५, १६, ६, ६२४० और ४६३२ भग होते हैं ।' मिथ्यादृष्टि जीवके ३१ और १ प्रकृतिक बन्धस्थान सम्भव नहीं, त उनका यहाँ विचार नहीं किया । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उदयस्थान ६ होते हैं । जो इस प्रकार हैं - २१, २४, २५, २६, २७, २८.२६. ३० और ३१ । इनका नाना जीवोकी अपेक्षा से पहले विस्तारसे वर्णन किया ही है उसी प्रकार यहाँ भी समझना । केवल यहाँ आहारकसयत, वैक्रियसयत और केवलीसम्बधी भग नहीं कहना चाहिये, क्योंकि ये मिथ्यादृष्टि जीवके नहीं होते है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे इन उदयस्थानोके भग क्रमश ४१, ११, ३२, ६००, ३१, ११६६, १७८१, २६१४ और १९६४ होते हैं । जिनका कुल जोड़ ७७७३ होता है। वैसे इन उदयस्थानोके कुल भग ७७६१ होते है जिनमें से केवली ८, आहारक साधुके ७ और उद्योत सहित वैक्रिय मनुष्यके ३ इन १८ भगोके कम कर देने पर ७७७३ भग प्राप्त होते हैं । तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे ९२, ८६, ८८, ८६, ८० और ७८ ये छह सत्त्वस्थान होते हैं । मिथ्यात्वमे आहारक चतुष्क और तीर्थंकरकी एक साथ सत्ता नहीं होती, अत यहाँ ६३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं कहा । ६२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान चारो गतियोंके मिथ्यादृष्टि जीवके सम्भव है, क्योंकि आहारक चतुष्ककी सत्तावाला किसी भी गतिमें उत्पन्न होता है । मिथ्यात्वमें ८६ प्रकृतियोंकी सत्ता सबके नहीं होती किन्तु नरकायुका बन्ध करनेके पश्चात् वेद सम्यष्टि होकर जो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करता है और जो अन्त समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर नरकमें जाता
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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