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________________ २४२ सप्ततिकाप्रकरण __ तथा चौथै गुणस्थानके औदारिकमित्रकाययोगमे बीवेद और नपुंचक्रवत नहीं हाता क्योंकि स्त्रीवेदी और नपुंसकवेही नियंत्र और मनुष्यों में अविरत सम्बनष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, अनः . औतारकमित्रकाययोगमें भंगोंजी ८ चौबीमी प्राप्त न होकर आठ अष्टक प्राप्त होते हैं । यहाँ पर भी मलयगिरि आचार्य अपनी , टीका लिखते हैं कि स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी सम्यानुष्टि जीव औदारिक मित्राययोगी नहीं होता यह बहुलनाकी अपेक्षाले कहा है। इस प्रकार। अविरतसन्यन्त्रष्टि गुणस्थानमें कुत्त २४० भग . प्राम हाते हैं। देशविरतमें आंदारिकभित्र, कामण काययोग और . आहारकाद्वकके बिना ११ योग और भंगाकी ८ चौवीली हानी हैं। यहाँ प्रत्येक बागमे भंगोंकी चांबीनो लन्भव है, अत. यहाँ कुद्ध भंग २११२ होने हैं। प्रमत्तसंचतमें औदारिकमिश्र और.. बामणक विना १३ योग और भंगोंकी चौरीमी होनी है। किन्तु ऐमा नियम है कि नीबदमें आहारकनाय्चोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होना, क्योंकि आहारक समुद्धात चौदह पूर्ववारी जीव ही करते हैं। परन्तु नियोंके चौदह पूर्वोका वान नहीं पाया जाता । कहा भी है तुच्चा गारवबहुना बलिदिया बुन्बला य धीईए।' इय अइमसमन्वणा भूयात्रात्री य नो थीणं ।' अर्थात्-स्त्रीवेदी जीव तुच्छ,गारवबहुल, चंचल इन्द्रिय और बुद्धिस दुर्वल होते हैं अतः वे बहुन अध्ययन करने में समर्थ नहीं हैं और उनके चष्टिवाद अंगका भी बान नहीं पाया जाता।'
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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