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________________ गुणस्थानों में भंगविचार २३१ अव पूर्व सूचनानुसार गुणस्थानो में मोहनीयके भंगोका विचार करते है उसमे भी पहले वन्धस्थानोके भगोको बतलाते हैंगुणठाणगेसु सु एक्केक्कं मोहबंधठाणेसु | पंचानियदिठाणे बंधोवरमो परं तत्तो ॥ ४२ ॥ अर्थ - - मिथ्यात्वादि आठ गुणस्थानों में मोहनीयके बन्धस्थानोमेसे एक एक बन्धस्थान होता है । तथा श्रनिवृत्तिकरण में पांच बन्धस्थान होते हैं । तदनन्तर अगले गुणस्थानो में वन्धका अभाव है । विशेपार्थ -- मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे एक २२ प्रकृतिक वन्ध स्थान होता है । सास्वादनमें एक २१ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें एक १७ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । देशविरतमें एक १३ प्रकृतिक वन्ध स्थान होता है । प्रमतसंयत, अप्रमत्तसंयत और पूर्वकरणमे एक ९ प्रकृतिक वन्धस्थान होता है । यहाँ इतना विशेष है कि अरति और शोक की बन्धव्युच्छित्ति प्रमत्तसयत गुणस्थान में ही हो जाती है, अत श्रप्रमत्तसयत और अपूर्वकरणके नौ प्रकृतिक बन्धस्थानमें एक एक ही भग प्राप्त होता है। पहले जो ६ प्रकृतिक वन्धस्थानमें २ भग कह आये है वे प्रमत्तसंयत गुणस्थानकी अपेक्षा कहे हैं। अनिवृत्तिकरणमे ५, ४, ३, २ और १ ये पांच बन्धस्थान होते हैं। तथा गेके गुणस्थानोमे मोहनीयका बन्ध नहीं होता, अत उसका निषेध किया है । अब गुणस्थानों में मोहनीयके उदयस्थानोंका कथन करते हैंसत्ताइ दस उ. मिच्छे सासाय छाई नव उ अविरए देसे पंचाई मीसए नवक्कोसा । व ॥ ४३ ॥ -
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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