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________________ २२४ सप्ततिकाप्रकरणः: - - 'चर छस्सु दोषिण सत्तसु एगे चउ गणिसु वेयणियभंगा। गोए पण चउ दो तिसु एगट्टसु दोरिण एक्कम्मि । अर्थात् वेदनीय कर्मके छह गुणस्थानोमें चार, सातमें दो और एकमें चार भंग होते हैं। तथा गोत्र कर्मके मिथ्यात्वमे पांच, सास्वादनमें चार, मिश्र आदि तीनमे दो. प्रमत्तादि आठमें एक और अयोगिकेवली मे एक भंग होता है ।। ।।। वात यह है कि बन्ध और उदय की अपेक्षा ,साता और असाता चे प्रतिपक्षभूत प्रकृतियां हैं। इनमे से एक कालमें किसी एक का वन्ध और किसी एकका ही उदय होता है किन्तु दोनोंकी एक साथ सत्ताके पाये जानमें कोई विरोध नहीं है। दूसरे असाता का वन्ध प्रारम्भके छह गुणस्थानोंमे ही होता है आगे नहीं, अतः प्रारम्भके छह गुणस्थानोंमे निम्न चार भंग प्राप्त होते हैं । यथा(१) असाताका बन्ध, असाताका उदय और साता असाताका सत्त्व, (२) असाताका वन्ध, साताका उदय और असाता का सत्त्व (३) साताका वन्ध, असाताका उदय और साता असाताका सत्त्व तथा (४) साताका वन्ध, साताका उदय और साता असाताका सत्त्व । सातवे गुणस्थानसे तेरहवें तक बन्ध केवल साताका ही होता है किन्तु उदय और सत्त्व दोनांका पाया जाता है, अतः इन गुणस्थानो मे निम्न दो भग प्राप्त होते हैं। यथा-(१) साता का वन्ध, साताका उदय और साता असाताका सत्त्व (२) साता का वध असाताका उदय और साता असाताका सत्त्व । अयोगि केवली गुणस्थानमें साताका भी वन्ध नहीं होता अतएव वहां वन्धकी अपेक्षा कोई भंग न प्राप्त होकर उदय और सत्त्वकी अपेक्षा ही भंग प्राप्त होते हैं। फिर भी जिसके इस गुणस्थानमें असाताका उदय है उसके उपान्त्य समयमें साताका सत्त्व नाश हो जाता है और जिसके साताको उदय है उसके उपान्त्य समयमें
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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